
एक
याद दो वक़्त ही सही आ जाती है किसी दूसरे शहर की गली में आहिस्ता क़दम बढ़ाते हुए
भले ही गलियाँ हर शहर की एक-सी होती हैं, हर शहर में तुम्हारा साथ नहीं होता
तुम्हारा आख़िरी स्पर्श याद आता है सड़क पार करते हुए
मैंने यहीं तुम्हें अलविदा कहा था और तुमने अपनी उँगलियों को मेरी उँगलियों से बीनकर अपने सभी जज़्बात मेरी हथेली की रेखाओं में भर दिए
आशा की कि अपने शहर की सारी हवा तत्काल ठहर जाए मेरी रगों में और धीरे-धीरे नसों में छूटते रहें वो तमाम एहसास जो दूसरे शहर की सर्द हवा को भरते वक़्त मेरे देह के लिए गरमाहट का कवच बनती रहे
दो
छोड़ने से पहले जो आख़िरी स्पर्श मिला तुम सभी से
मेरी हथेलियों, मेरे कंधे, मेरी पीठ और मेरी छाती को
क़ैद करता गया मेरी विह्वलता को मेरे ही शरीर में कहीं
जिसका अंदाज़ा मेरे मन को, देह का स्वामित्व प्राप्त होने के बाद भी,
नहीं है
रातों में भरी गई उबासियों के दौरान मेरे गालों पर छहलती बूँदों का आशय जब तक समझ सका दूसरे शहर की सड़क मेरे क़दमों के नीचे आ गई
रो लेने की आज़ादी भी किसी बंद कमरे के अँधेरे में ही मिल पाती है
कि अपनी अश्रुधारा के लिए क्या दलीलें दूँ
चंद हज़ार रुपयों के लिए अपना तन और मन अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख कर
मैंने ख़ुद ही नीलाम कर दिया
सड़क के उस पार से मेरी मुस्कान ने तुमसे विदा ली
और पूरा शहर तुम्हारे साथ उसी छोर पर छूट गया
मेरी आत्मा के साथ
जिसे मैं तुम्हारी हथेली, अपनी माँ की छाती और अपनी बहन के कंधों पर छोड़ आया हूँ
हिफ़ाज़त के लिए
ताकि क़तरा-क़तरा देह नीलाम कर लेने के बाद जब भी मैं लौटूँ
अपने चित्त को तुम सभी के प्रेम से पोषित पाऊँ।