शमशेर बहादुर सिंह 13 जनवरी 1911- 12 मई 1993 आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक स्तंभ हैं। हिंदी कविता में अनूठे बिंबों के रचयिता शमशेर आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे। तार सप्तक से शुरुआत कर "चुका भी नहीं हूँ मैं" के लिए साहित्य अकादमी सम्मान पाने वाले शमशेर जी ने कविता के अलावा डायरी लिखी और हिंदी उर्दू शब्दकोश का संपादन भी किया।
कार्यक्षेत्र
'रूपाभ', इलाहाबाद में कार्यालय सहायक (१९३९), 'कहानी' में त्रिलोचन के साथ (१९४०), 'नया साहित्य', बंबई में कम्यून में रहते हुए (१९४६, माया में सहायक संपादक (१९४८-५४), नया पथ और मनोहर कहानियाँ में संपादन सहयोग। दिल्ली विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय अनुदान की एक महत्वपूर्ण परियोजना 'उर्दू हिन्दी कोश' का संपादन (१९६५-७७), प्रेमचंद सृजनपीठ, विक्रम विश्वविद्यालय के अध्यक्ष (१९८१-८५)
महत्वपूर्ण कृतियां
काविता-संग्रह:- कुछ कविताएं (१९५६), कुछ और कविताएं (१९६१), चुका भी नहीं हूं मैं (१९७५), इतने पास अपने (१९८०), उदिता - अभिव्यक्ति का संघर्ष (१९८०), बात बोलेगी (१९८१), काल तुझसे होड़ है मेरी (१९८८)।
निबन्ध-संग्रह:- दोआब
कहानी-संग्रह":- प्लाट का मोर्चा
शमशेर का समग्र गद्य कु्छ गद्य रचनायें तथा कुछ और गद्य रचनायें नामक पुस्तकों में संग्रहित हैं ! उनकी प्रमुख कविताओं में 'अमन का राग'(प्रकाशित१९५२),'एक पीली शाम'(१९५३),'एक नीला दरिया बरस रहा' प्रमुख है।
साहित्यिक वैशिष्ट्य
शमशेर सौंदर्य के अनूठे चित्रों के स्रष्टा के रूप में हिंदी में सर्वमान्य हैं। वे स्वयं पर इलियट-एजरा पाउंड-उर्दू दरबारी कविता का रुग्ण प्रभाव होना स्वीकार करते हैं। लेकिन उनका स्वस्थ सौंदर्यबोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है।
1. मोटी धुली लॉन की दूब,
साफ मखमल-सी कालीन।
ठंडी धुली सुनहली धूप।
2. बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी, खुले है/ श्याम पथ पर/ स्थिर हुए-से, चल।
'टूटी हुई, बिखरी हुई' प्रतिनिधि कविताएँ नहीं मानी जाती। उनमें शमशेर ने लिखा है-
'दोपहर बाद की धूप-छांह
में खड़ी इंतजार की ठेलेगाड़ियां/ जैसे मेरी पसलियां../
खाली बोरे सूजों से रफू किये जा रहे हैं।.
जो/ मेरी आंखों का सूनापन है।'
शमशेर के लिए मार्क्सवाद की क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक परंपरा में विरोध नहीं था। उषा शीर्षक कविता में उन्होंने भोर के नभ को नीले शंख की तरह देखा है।
'प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे'-
वैदिक कवियों की तरह वे प्रकृति की लीला को पूरी तन्मयता से अपनाते है-
1. जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।
सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता।
2. सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता
केश-तन में झिलमिला कर डूब जाता..
वे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सांप्रदायिकता के विरोधी और समाहारता के समर्थक थे। उन्होंने स्वयं को 'हिंदी और उर्दू का दोआब' कहा है। रूढि़वाद-जातिवाद का उपहास करते हुए वे कहते हैं-
'क्या गुरुजी मनु ऽ जी को ले आयेंगे?
हो गये जिनको लाखों जनम गुम हुए।'
पुरस्कार व सम्मान
१९७७- साहित्य अकादमी पुरस्कार, 'चुका भी हूँ नहीं मैं' के लिये
मैथिली शरण गुप्त पुरस्कार
1989- कबीर सम्मान