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दुलारी

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गो कि बचपन से वो इस घर में रही और पली, मगर सोलवहीं सत्हवींर बरस में थी कि आख़िर-ए-कार लौंडी भाग गई। उसके माँ-बाप का पता नहीं था। उसकी सारी दुनिया यही घर था और उसके घर वाले। शेख़ नाज़िम अली साहिब ख़ुशहाल आदमी थे, घराने में माशाअल्लाह कई बेटे और बेटियां भी थीं। बेगम साहिबा भी ब-क़ैद-ए-हयात थीं और ज़नाना में उनका पूरा राज था। दुलारी ख़ास उनकी लौंडी थी। घर में नौकरानियां और मामाएँ आतीं। महीने दो महीने , साल दो साल काम करतीं उसके बाद ज़रा सी बात पर झगड़ कर नौकरी छोड़ देतीं और चली जातीं मगर दुलारी के लिए हमेशा एक ही ठिकाना था। उससे घर वाले काफ़ी मेहरबानी से पेश आते। ऊंचे दर्जे के लोग हमेशा अपने से नीचे तबक़े वालों का ख़्याल रखते हैं। दुलारी को खाने और कपड़े की शिकायत न थी। दूसरी नौकरानियों के मुक़ाबले में उस की हालत अच्छी ही थी। मगर बावजूद इसके कभी- कभी जब किसी मामा से और उससे झगड़ा होता तो वो ये तंज़ हमेशा सुनती मैं तेरी तरह कोई लौंडी थोड़ी हूँ। इसका दुलारी के पास कोई जवाब न होता।

उसका बचपन बेफ़िक्री में गुज़रा। उसका रुत्बा घर की बी बीवी से तो क्या नौकरानियों से भी पस्त था। वो पैदा ही उस दर्जे में हुई थी। ये तो सब ख़ुदा का किया धरा है, वही जिसे चाहता है इज़्ज़त देता है जिसे चाहता है ज़लील करता है, इसका रोना किया? दुलारी को अपनी पस्ती की कोई शिकायत न थी। मगर जब उस की उम्र का वो ज़माना आया जब लड़कपन का ख़त्म और जवानी की आमद होती है और दिल की गहरी और अँधेरी बेचैनियां ज़िंदगी को कभी तल्ख़ और कभी मीठी बनाती हैं तो वो अक्सर रंजीदा सी रहने लगी। लेकिन ये एक अंदरूनी कैफ़ीयत थी जिसकी उसे ना तो वजह मालूम थी ना दवा। छोटी साहबज़ादी हसीना बेगम और दुलारी दोनों क़रीब क़रीब हमसिन थीं और साथ खेलतीं। मगर जूँ-जूँ उनका सन बढ़ता था तूं तूं दोनों के दरमियाँ फ़ासिला ज़्यादा होता जाता। साहबज़ादी क्यों कि शरीफ़ थीं उनका वक़्त पढ़ने लिखने, सीने पिरोने, में सर्फ होने लगा। दुलारी कमरों की ख़ाक साफ़ करती, झूटे बर्तन धोती, घड़ों में पानी भर्ती। वो ख़ूबसूरत थी। कुशादा चेहरा, लंबे- लंबे हाथ पैर, भरा जिस्म, मगर आम तौर से उस के कपड़े मैले कुचैले होते और उसके बदन से बू आती। त्योहार के दिनों अलबत्ता वो अपने रखाऊँ कपड़े निकाल कर पहनती और सिंगार करती, या अगर कभी शाज़-ओ-नादिर उसे बेगम साहिबा या साहबज़ादियों के साथ कहीं जाना होता तब भी उसे साफ़ कपड़े पहनना होते।

शब-ए-बरात थी। दुलारी गुड़िया बनी थी। ज़नाने के सेहन में आतिशबाज़ी छूट रही थी। सब घर वाले नौकर-चाकर खड़े तमाशा देखते। बच्चे गुल्ल मचा रहे थे। बड़े साहबज़ादे काज़िम भी मौजूद थे जिनका सिन बीस-इक्कीस बरस का था। ये अपनी कॉलेज की ता’लीम ख़त्म ही करने वाले थे। बेगम साहिबा उन्हें बहुत चाहती थीं मगर ये हमेशा घरवालों से बेज़ार रहते और उन्हें तंगख़याल और जाहिल समझते। जब छुट्टीयों में घर आते तो उनको बहस ही करते गुज़र जाती, ये अक्सर पुरानी रस्मों के ख़िलाफ़ थे मगर इज़हार-ए- नाराज़ी करके सब कुछ बर्दाश्त कर लेते। इससे ज़्यादा कुछ करने के लिए तैयार नहीं थे।

उन्हें प्यास लगी, और उन्होंने अपनी माँ के कंधे पर सर रखकर कहा, “अम्मी जान प्यास लगी है”।

बेगम साहिबा ने मुहब्बत भरे लहजे में जवाब दिया, “बेटा शर्बत पियो, में अभी बनवाती हूँ”, और ये कह कर दुलारी को पुकार कर कहा कि शर्बत तैयार करे।

काज़िम बोले, “जी नहीं अम्मी जान, उसे तमाशा देखने दीजीए, मैं ख़ुद अंदर जा कर पानी पी लूँगा”। मगर दुलारी हुक्म मिलते ही अंदर की तरफ़ चल दी थी। काज़िम भी पीछे- पीछे दौड़े। दुलारी एक तंग अँधेरी कोठरी में शर्बत की बोतल चुन रही थी। काज़िम भी वहीं पहुंच कर रुके।

दुलारी ने मुड़ कर पूछा, “आपके लिए कौनसा शर्बत तैयार करूँ?” मगर उसे कोई जवाब ना मिला। काज़िम ने दुलारी को आँख भर के देखा, दुलारी का सारा जिस्म थरथराने लगा और उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने एक बोतल उठा ली और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी। काज़िम ने बढ़कर उसके हाथ से बोतल लेकर अलग रख दी और उसे गले से लगा लिया। लड़की ने आँखें बंद कर लीं और अपने तन-मन को उसकी गोद में दे दिया।

दो हस्तियों ने, जिनकी ज़ेह्नी ज़िंदगी में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ था, यकायक ये महसूस किया कि वो आरज़ूओं के साहिल पर आ गए। दरअसल वो तिनकों की तरह तारीक ताक़तों के समुंदर में भय चले जा रहे थे।

एक साल गुज़र गया। काज़िम की शादी ठहरी गई। शादी के दिन आगए। चार- पाँच दिन में घर में दुल्हन आ जाएगी। घर में मेहमानों का हुजूम है। एक जश्न है काम की कसरत है। दुलारी एक दिन रात को ग़ायब हो गई, बहुत छानबीन हुई, पुलिस को इत्तिला दी गई, मगर कहीं पता न चला। एक नौकर पर सबका शुब्हा था, लोग कहते थे कि उसी की मदद से दुलारी भागी और वही उसे छुपाए हुए है। वो नौकर निकाल दिया गया। दरहक़ीक़त दुलारी उसी के पास निकली मगर उसने वापस जाने से साफ़ इनकार कर दिया।

तीन- चार महीने बाद शेख़ नाज़िम अली साहिब के एक बुड्ढे नौकर ने दुलारी को शहर की ग़रीब रंडीयों के मुहल्ले में देखा। बूढ्ढा बेचारा बचपन से दुलारी को जानता था। वो उसके पास गया और घंटों तक दुलारी को समझाया कि वापस चले, वो राज़ी हो गई। बूढ्ढा समझता था कि उसे इनाम मिलेगा और ये लडकी मुसीबत से बचेगी।

दुलारी की वापसी ने सारे घर में खलबली डाल दी। वो गर्दन झुकाए सर से पैर तक एक सफ़ेद चादर अड़े, परेशान सूरत, अंदर दाख़िल हुई और साएबान के कोने में जाकर ज़मीन पर बैठ गई। पहले तो नौकरानियां आईं। वो दूर से खड़े हो कर उसे देखतीं और अफ़सोस करके चली जातीं। इतने में नाज़िम अली साहिब ज़नाने में तशरीफ़ लाए। उन्हें जब मालूम हुआ कि दुलारी वापस आ गई है, तो वो बाहर निकले, जहां दुलारी बैठी थी। वो काम काजी आदमी थे, घर के मुआ’मलात में बहुत कम हिस्सा लेते थे, उन्हें भला इन ज़रा- ज़रा सी बातों की कहाँ फ़ुर्सत थी। दुलारी को दूर से पुकार कर कहा, “बेवक़ूफ़, अब ऐसी हरकत ना करना!” और ये फ़रमा कर अपने काम पर चले गए। इसके बाद छोटी साहबज़ादी, दबे क़दम, अंदर से बरामद हुईं और दुलारी के पास पहुंचीं, मगर बहुत क़रीब नहीं, उस वक़्त वहां और कोई न था। वो दुलारी के साथ की खेली हुई थी, दुलारी के भागने का उन्हें बहुत अफ़सोस था। शरीफ़, पाक-बाज़, बाइस्मत हसीना बेगम को उस ग़रीब बेचारी पर बहुत तरस आ रहा था मगर उनकी समझ में ना आता था कि कोई लड़की कैसे ऐसे घर का सहारा छोड़कर जहां उस की सारी ज़िंदगी बसर हुई हो बाहर क़दम तक रख सकती है, और फिर नतीजा क्या हुआ? इस्मत फ़रोशी, ग़ुर्बत, ज़िल्लत, ये सच्च है कि वो लौंडी थी, मगर भागने से उसकी हालत बेहतर कैसे हुई?

दुलारी गर्दन झुकाए बैठी थी। हसीना बेगम ने ख़्याल किया कि वो अपने किए पर पशेमान है। इस घर से भागना, जिसमें वो पली, एहसान फ़रामोशी थी, मगर इसकी उसे काफ़ी सज़ा मिल गई, ख़ुदा भी गुनहगारों की तौबा क़बूल कर लेता है। गो कि उसकी आबरू ख़ाक में मिल गई मगर एक लौंडी के लिए ये इतनी अहम चीज़ नहीं जितनी एक शरीफ़ ज़ादी के लिए। किसी नौकर से इसकी शादी कर दी जाएगी। सब फिर से ठीक हो जाएगा। इन्होंने आहिस्ता से नर्म लहजे में कहा,

“दुलारी ये तूने क्या किया?”

दुलारी ने गर्दन उठाई, डबडबाई आँखों से एक लम्हा के लिए अपने बचपन की हमजोली को देखा और फिर उसी तरह से सर झुका लिया।

हसीना बेगम वापस जा रही थीं कि ख़ुद बेगम साहिबा आ गईं। उनके चेहरे पर फ़ातिहाना मुस्कुराहट थी, वो दुलारी के बिलकुल पास आकर खड़ी हो गईं। दुलारी उसी तरह चुप, गर्दन झुकाए बैठी रही। बेगम साहिबा ने उसे डाँटना शुरू किया, “बे-हया! आख़िर जहां से गई थी वहीं वापस आई ना, मगर मुँह काला कर के सारा ज़माना तुझ पर थूड़ी थूड़ी करता है। बुरे फे़’ल का यही अंजाम है...”

मगर बावजूद इन सब बातों के बेगम साहिबा उसके लौट आने से ख़ुश थीं। जब से दुलारी भागी थी घर का काम इतनी अच्छी तरह नहीं होता था।

इस लॉ’न ता’न का तमाशा देखने, सब घर वाले बेगम साहिबा और दुलारी के चारों तरफ़ जमा हो गए थे। एक नजिस, नाचीज़ हस्ती को इस तरह ज़लील देखकर सब के सब अपनी बड़ाई और बेहतरी महसूस कर रहे थे। मुर्दार खोर गिद्ध भला कब समझते हैं कि जिस बेकस जिस्म पर वो अपनी कसीफ़ ठोंगें मारते हैं, बे-जान होने के बावजूद भी उनके ऐसे ज़िंदों से बेहतर है।

यकाय़क बग़ल के कमरे से काज़िम अपनी ख़ूबसूरत दुल्हन के साथ निकले और अपनी माँ की तरफ़ बढ़े। उन्होंने दुलारी पर नज़र नहीं डाली। उनके चेहरे से ग़ुस्सा नुमायां था। उन्होंने अपनी वालिदा से दुरुश्त लहजे में कहा,

“अम्मी ख़ुदा के लिए इस बदनसीब को अकेली छोड़ दीजीए, वो काफ़ी सज़ा पा चुकी है आप देखती नहीं कि इसकी हालत क्या हो रही है!”

लड़की इस आवाज़ के सुनने की ताब ना ला सकी। उसकी आँखों के सामने वो समां फिर गया जब वो और काज़िम रातों की तन्हाई में यकजा होते थे, जब उसके कान प्यार के लफ़्ज़ सुनने के आदी थे। काज़िम की शादी उसके सीने में नश्तर की तरह चुभती थी। उस ख़लिश, उसी बेदिली ने उसे कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया, और अब ये हालत है कि वो भी यूं बातें करने लगे! इस रुहानी कोफ़्त ने दुलारी को इस वक़्त निस्वानी हमीयत का मुजस्समा बना दिया। वो उठ खड़ी हुई और उसने सारे गिरोह पर एक ऐसी नज़र डाली कि एक- एक कर के सबने हटना शुरू किया। मगर ये एक मजरूह, पुरशिकस्ता चिड़िया की परवाज़ की आख़िरी कोशिश थी। उस दिन रात को वो फिर ग़ायब हो गई।

 
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