(1)
हैं यह शोक समाज आज उसके लिए।
जिसने हिंदी के अनेक पाठक किए ।।
रचा तिलस्मी-जाल फँसे जिसमें बहुतेरे।
टो टो पढ़ने वाले औ उर्दू के चेरे ।।
चंद्रकांता हाथ न उनकी ओर बढ़ाती।
ढूँढे उनका पता कहीं हिंदी फिर पाती?
(2)
ऐयारी के बल कितनों को पकड़ पकड़कर।
फुसला लाया हिंदी के जो नूतन पथ पर ।।
हुआ गुप्त वह उस तिलस्म में चटपट जाकर।
कहीं न जिसका भेद कभी हैं खुला किसी पर ।।
अहो! देवकी नंदनजी हा! चल दिए।
छोड़ जगत् जंजाल, शोक उनके लिए ।।
('इंदु', अगस्त, 1913)
Read More! Learn More!