
मुझे जब भी वो गलियाँ और वो रस्ता याद आता है
कोई धुँदला सा मंज़र है जो उजला याद आता है
फ़ज़ा-ए-दिल पे तारी है बहुत ही हब्स का मौसम
तिरी क़ुर्बत की ख़ुश्बू का वो झोंका याद आता है
कहा तुम तो जुदाई का वो मंज़र भूल बैठे हो
ख़ला में देख कर मुझ से वो बोला याद आता है
ख़िज़ाँ-रुत है मगर मुझ को ख़यालों के तसलसुल में
मोहब्बत के गुलाबों का वो सपना याद आता है
किसी के दुख भरे लम्हे में जब कोई बिलकता है
हक़ीक़त में उसे हर ज़ख़्म अपना याद आता है
मुसलसल रेत पर चलना वफ़ा की रीत ठहरी है
तिरी दहलीज़ तक फैला वो सहरा याद आता है
वो लम्हा जो गुज़रते मौसमों में साथ ठहरा है
मुझे ख़ुद भी नहीं मा'लूम कितना याद आता है
कभी जब हिज्र की आहट से दिल आँगन में आती है
बहुत अपनाइयत से बस वो अपना याद आता है
तिरा ही 'अक्स उतरा है मिरी नज़्मों में ग़ज़लों में
वो लहजा तेरी चाहत का वो चेहरा याद आता है
हमारा नाम लिक्खा था कभी जो रेत पर उस ने
कभी जब याद आए तो वो दरिया याद आता है
मिरे आँगन में जब भी शाम के साए उतरते हैं
मुझे 'शाहीं' मोहब्बत का ही साया याद आता है