मोहब्बत का तिरी बंदा हर इक को ऐ सनम पाया
बराबर गर्दन-ए-शाह-ओ-गदा दोनों को ख़म पाया
ब-रंग-ए-शम्अ जिस नय दिल जलाया तेरी दूरी मैं
तो उस नय मंज़िल-ए-मक़्सूद को ज़ेर-ए-क़दम पाया
बजा करते हैं आशिक़ ताक़-ए-अबरू की परस्तारी
यही मेहराब-ए-दैर-ओ-काबा में भी हम ने ख़म पाया
निशाना तीर-ए-तोहमत का है मेरा अख़्तर-ए-ताले
उठाऊँ दाग़ मैं तो आसमाँ समझे दिरम पाया
हज़ारों हसरतें जावेंगी मेरे साथ दुनिया से
शरार-ओ-बर्क़ से भी अरसा-ए-हस्ती को कम पाया
सिवाए रंज कुछ हासिल नहीं है इस ख़राबे मैं
ग़नीमत जान जो आराम तू ने कोई दम पाया
नज़र आया तमाशा-ए-जहाँ जब बंद कीं आँखें
सफ़ा-ए-क़ल्ब से पहलू में हम ने जाम-ए-जम पाया
जलाया और मारा हुस्न की नैरंग-साज़ी ने
कभी बर्क़-ए-ग़ज़ब उस को कभी अब्र-ए-करम पाया
फ़िराक़-अंजाम काम आग़ाज़-ए-वसलत का बिला शक है
बहुत रोया मैं रूह-ओ-तन को जब मुश्ताक़ हम पाया
हर इक जौहर में उस का नक़्श-ए-पा-ए-रफ़्तगाँ समझा
दम-ए-शमशीर-ए-क़ातिल जादा-ए-राह-ए-अदम पाया
हमारा काबा-ए-मक़्सूद तेरा ताक़-ए-अबरू है
तिरी चश्म-ए-सियह को हम ने आहु-ए-हरम पाया
हुआ हरगिज़ न ख़त्त-ए-शौक़ का सामाँ दुरुस्त 'आतिश'
सियाही हो गई नायाब अगर हम ने क़लम पाया