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बुनी हुई रस्सी

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बुनी हुई रस्सी को घुमाएँ उल्टा

तो वह खुल जाती है

और अलग-अलग देखे जा सकते हैं

उसके सारे रेशे

मगर कविता को कोई

खोले ऐसा उल्टा

तो साफ़ नहीं होंगे हमारे अनुभव

इस तरह

क्योंकि अनुभव तो हमें

जितने इसके माध्यम से हुए हैं

उससे ज़्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों,

व्यक्त वे ज़रूर हुए हैं यहाँ

कविता को

बिखरा कर देखे से

सिवा रेशों के क्या दिखता है

लिखने वाला तो

हर बिखरे अनुभव के रेशे को

समेट कर लिखता है!

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Sootradhar