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अरे तुम हो काल के भी काल

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कौन कहता है कि तुमको खा सकेगा काल?

अरे, तुम हो काल के भी काल अति विकराल!

काल का तव धनुष; दिक् की है धनुष की डोर;

धनु-विकंपन से सिहरती सृजन-नाश-हिलोर!

तुम प्रबल दिक्-काल-धनु-धारी सुधन्वा वीर;

तुम चलाते हो सदा चिर चेतना के तीर।

क्या बिगाड़ेगा तुम्हारा, यह क्षणिक आतंक?

क्या समझते हो कि होंगे नष्ट तुम अकलंक?

यह निपट आतंक भी है भीति-ओत-प्रोत!

और तुम? तुम हो चिरंतन अभयता के स्रोत!!

एक क्षण को भी न सोचो कि तुम होगे नष्ट;

तुम अनश्वर हो! तुम्हारा भाग्य है सुस्पष्ट!

चिर विजय दासी तुम्हारी, तुम जयी उबुद्ध;

क्यों बनो हतआश तुम, लख मार्ग निज अवरुद्ध?

फूँक से तुमने उड़ायी भूधरों की पाँत;

और तुमने खींच फैंके काल के भी दाँत;

क्या करेगा यह विचारा तनिक-सा अवरोध?

जानता है जग : तुम्हारा है भयंकर क्रोध!

जब करोगे क्रोध तुम, तब आयगा भूडोल,

काँप उट्ठेंगे सभी भूगोल और खगोल;

नाश की लपटें उठेगी गगन-मंडल बीच;

भस्म होंगी ये असामाजिक प्रथाएँ नीच!

औ' पधारेगा सृजन कर अग्नि से सुस्नान;

मत बनो गत आश! तुम हो चिर अनंत, महान्!

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Sootradhar