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कविता रोटी नहीं बन सकती

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कविता रोटी नहीं बन सकती, पाठकों की

मगर बन सकती है संवाद, मूक नाटकों की

जिसे अंधे बन देखे जा रहे थे

गूँगे बन फेके जा रहे थे।

कविता हल नहीं बन सकती, किसानों का

मगर बहला सकती है दिल, मेहमानों का

जिससे एक वक़्त की रोटी बचाई जा सके

और अपने वफ़ादार जानवरों को भी खिलाई जा सके।

कविता रंगीन साड़ी नहीं बन सकती, किसी बेवा की

जिसने तन-मन-धन से, पूरे घर की सेवा की

पर बन सकती है एकाकी जीवन की हमदम

दूर कर सकती है कुछ आँसू उसके कुछ ग़म।

कविता तलवार नहीं बन सकती, योद्धाओं की

मगर बन सकती है ताक़त, उनकी भुजाओं की

जिसे देखा जा सकता है युद्ध के मैदानों में

वीर रस से उफनते गानों में।

कविता फ़स्ल नहीं बन सकती, खेतों की

मगर सवाल कर सकती है, खाली पेटों की

जिसे साहूकार ऐंठे जा रहे हैं

ग़रीब फुटपाथ पर लेटे जा रहे हैं।

कविता आग नहीं बन सकती, चूल्हों की

मगर लोरी बन साथ दे सकती है झूलों की

जिससे बच्चे को भूखे पेट सुलाया जा सके

कुछ देर और फुसलाया जा सके।

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Sootradhar