
सूरत-ए-दिलकशी रही ख़्वाहिश-ए-ज़िंदगी रही
दाग़-ए-दिल-ए-ख़राब से रात में रौशनी रही
तेरे सभी कुलाह-पोश कोह-ए-ग़ुरूर से गिरे
अपनी तो तर्क-ए-सर के बा'द इश्क़ में बरतरी रही
सातवें आसमान तक शो'ला-ए-इल्म-ओ-अक़्ल था
फिर भी ज़मीन-ए-अहल-ए-दिल कैसी हरी भरी रही
आप हुआ है मुंदमिल गुल ने बहार की नहीं
शोहरत-ए-दस्त-ए-चारागर ज़ख़्म ही ढूँढती रही
कहते हैं हर अदब में है एक सदा-ए-बाज़गश्त
'मीर' के हुस्न-ए-शे'र से मेरी ग़ज़ल सजी रही
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