
कभी-कभी
यादें भी बन जाती हैं
बीज से पेड़
उपजती-फैलती हैं मन के सूने आँगन में
कभी-कभी, अँगुली पकड़कर
ले जाती हैं बचपन की गली में
जहाँ घर
घर का कच्चा आँगन
आँगन में नीम का पेड़
पेड़ पर बैठे पक्षी
चहचहाते हैं दिन खुलने के साथ
कच्चे आँगन को भरते तिनकों से
बीटों के साथ
कभी-कभी
घोंसले से गिरता कोई नन्हा चूज़ा
माँ, बीट, तिनके साफ़ करती-करती
चूज़े को रखवाती घोंसले में फिर से
पक्षी फिर बीट करते
तिनके बिखेरते, माँ फिर साफ़ करती
लेकिन ख़ुशी से
कभी-कभी माँ कहती
भाग्यशाली होते हैं वे घर
जहाँ पक्षी आएँ, दाना चुगें
तिनके बिखेरें
उस पेड़ पर
माँ ने डाल दी एक मोटी रस्सी
उसके साथ एक पीढ़ी टिका दी
मैं सोया रहता उस पीढ़ी पर देर तक
पेड़ की छाया में, ठंडी हवा में
समय बदला, कच्चे घर की मिट्टी
संगमरमरी पत्थरों में बदल गई
नीम का पेड़
अब नहीं था आँगन में
अब आँगन से महक नहीं
गंध फैलती पत्थरों की
कुछ दिन तो पक्षी आते रहे
मुँडेरों पर बैठते उड़ जाते
फिर पंछी नहीं लौटे
एक चिड़िया जो निरंतर आती रही
कभी द्वार पर बैठती, कभी खिड़कियों पर
कभी छत की बल्लियों पर
बना बैठती घोंसला
कभी देर रात तक बैठी रहती
छत के बीच वाली बल्ली पर
जैसे उसे आती हो
पेड़ की महक दरवाज़ों से
खिड़कियों से, छत की बल्लियों से
जब कभी
उस नींद के बारे में सोचता हूँ
तो कई रातें सो नहीं पाता
मानो वह पेड़ आ बैठा हो
मेरी स्मृति में नींद में
सपनों में।