
केदारनाथ सिंह के लिए
कवि के जाने के दुख से
अगर उबरना है तो
उसकी कविता में उतर जाओ अकेले और चुपचाप
इसके लिए मत खोजो किसी का संग-साथ
मत पूछो कि हिमालय किधर है?
उसके लिखे शब्दों पर ग़ौर करो
रखो चौकस निगाह
देखो कि उजास के कितने रंग हैं वहाँ
गिनो सको तो गिनो कि कितने-कितने छिद्रों से छन कर
पृथ्वी पर आने को विकल हैं
सूर्य-चंद्र और अन्यान्य अनाम ग्रह-नक्षत्र।
छुओ कविता को
उसका हाथ अपने हाथ में लेकर महसूस करो
कि कितना अंधकार सोख लिया है इस सोख़्ते ने
देखो कि यहाँ वहाँ ये जो दिख रहे हैं
दाग़-धब्बे और बदरंग चकत्ते तमाम
इन्हीं में कहीं दबा है मेरा तुम्हारा और उनका भी दुख
जिनकी कहीं थी ही नहीं कोई आवाज़
कि गला खँखारकर पूछ सकें कि गाड़ी अभी कितनी लेट है?
सृष्टि पर लगा है पहरा फिर भी
भाषा का एक पुल है
माँझी के पुल की तरह ठोस और लोच से भरपूर
इस पर ठहरो
जैसे ठहर जाते हैं पानी में घिरे हुए लोग
अभी बस अभी करो यह एक ज़रूरी काम
उतरो कविताओं के जल में जूते-चप्पल और खड़ाऊँ उतार कर।
कहीं नहीं जाता है कोई कवि
भले ही वह बताता रहे
कि 'जाना' हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है!