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कर्मनाशा

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फूली हुई सरसों के
खेतों के ठीक बीच से
सकुचाकर निकलती है कर्मनाशा की पतली धारा।

कछार का लहलहाया पीलापन
भूरे पानी के शीशे में
अपनी शक्ल पहचानने की कोशिश करता है।

धूप में ताँबे की तरह चमकती है
घाट पर नहाती हुई स्त्रियों की देह।

नाव से हाथ लपकाकर
एक-एक अंजुरी जल उठाते हुए
पुरनिया-पुरखों को कोसने लगता हूँ मैं—
क्यों-कब-कैसे कह दिया
कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा!

भला बताओ
फूली हुई सरसों
और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में
कोई भी नदी
आख़िर कैसे हो सकती है अपवित्र?

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Sootradhar