
सारे मंसूबे रख आए हैं ताक पर
हम सूने आँगन-से
धूल ढके दर्पण-से
जीते हैं!
एक वक़्त गुजर गया
अपने से बात नहीं कर पाए,
मरने का मिलता अवकाश नहीं
हम ऐसे जीवन से भर पाए,
यों ही दुर्घटना से घटे हुए
सारे संदर्भों से कटे हुए
जीते हैं!
जड़ता ने जकड़ा है कुछ ऐसे
अब केवल मृत्युबोध होता है,
मोती तो हाथ नहीं आने के
लगता है, यह अंतिम गोता है,
अपने में ही अद्भुत भाषा-से
जाने किस आस या दुराशा से
जीते हैं!
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