मुस्कराये हम बरायेनाम
देखकर बनती बिगड़ती भाग्य की तस्वीर
मुस्कराये हम बरायेनाम कितनी बार!
चाँदनी के घाव पुर पाये नहीं अब तक
दामिनी के दर्प की बाकी निशानी है
पाँव जो रुकना नहीं सीखे पड़ावों पर
सिर्फ लम्बे रास्तों की मेहरबानी है
भोर का विश्वास उठ पाता नहीं मन से
हो चुकी है यों डगर में शाम कितनी बार
दर्द बेदर्दी हमारी चाह क्यों समझे
उम्र सारी काट दी है इंतज़ारों में
चंद लम्हे जिंदगी के थे, मगर वे भी
कुछ खयालों में बिताये, कुछ पुकारों में
देहरी ने जब कहा, किस की प्रतीक्षा है
ले नहीं पाये किसी का नाम कितनी बार!
छान आए ग़म हज़ारों पनघटों की खाक
प्यास ने दामन मगर छोड़ा न अधरों का
रह गए संयम बिचारे सब विफल होकर
टूटता जब तब रहा है बाँध नज़रों का
मरघटों की गोद में पनघट सरीखी प्रीत
कर चुकी होकर विवश आराम कितनी बार!
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