
ढलानों पर कभी घूमा
शिखर पर मैं कभी ठहरा।
खुले रथ पर हवाओं के
यहाँ चढ़कर वहाँ उतरा।
कभी इन आँधियों में था,
कभी उन बिजलियों में था,
समंदर पर कभी था तो
कभी इन घाटियों में था,
बजाकर कान में सीटी
चिहुँक जाती दिशाओं के
हँसी से मैं हुआ जाता
कभी दुहरा, कभी तिहरा।
फरों के चीड़ के वन से
लिपटकर मैं कभी सोया,
नदी, निर्झर, पहाड़ों से
गले मिलकर कभी रोया,
कभी लेकर पताकाएँ
विजय की मैं रहा उड़ता,
कभी हरियालियों के द्वार
पर देता रहा पहरा।
लुटाता था खुले हाथों
कभी मोती, कभी हीरे,
किसे मैंने नहीं बाँधा
कभी कसकर, कभी धीरे,
बिना बोले, बिना पूछे
मिला सबसे नया बनकर
कभी कोई नई सूरत
कभी कोई नया चेहरा।
घुमाता चर्ख़ियों पर मैं
परिंदों को थके-हारे,
जिलाता उन सभी को जो
मरे थे प्यास के मारे
बनाता ईंगुरी सुबहें
बनाता सुरमई शामें
रहा रँगता दिनों को मैं
कभी हल्का, कभी गहरा।
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