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आग

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बस्तियों में हुई रोशनी
रोशनी से जलीं बस्तियाँ।
आग की एक शहतीर सी
आ गिरी पास जलती हुई,

तोड़ती घर, मुँडेरें, छतें,
लाल शोले उगलती हुई,

और लाखों किलोवाट की
जल उठीं पास अणु-भट्ठियाँ।
जग उठा एक ज्वालामुखी
शाम आई कि यह क्या हुआ?

कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा,
घर उगलने लगे हैं धुआँ।

मिट गए अब सभी हाशिए
हाशियों से घिरे दायरे,
जल गए हैं सभी चौखटे
गोल चौकोर रंगों भरे।

राख के रंग की हो गईं
लाल पीली हरी बत्तियाँ।

बढ़ रहीं आग की सरहदें,
डूबती जा रही है ज़मीं;
हैं पिघलती सभी धातुएँ
ये पिघलते हुए आदमी।

चिनगियों-सी जलीं, बुझ गईं
सिर उठाती सभी हस्तियाँ।

भीड़ दौड़ी चली आ रही,
भीड़ दौड़ी चली जा रही,
लाश अपनी कुचलता हुआ
भागता जा रहा आदमी।

हर तरफ़ चीख़-चिल्लाहटें
हर तरफ़ सुन रहा सिसकियाँ।

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Sootradhar