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Shayari - Shakeel Azmi

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शायरी - शकील आज़मी


जब तलक उस ने हम से बातें कीं
जैसे फूलों के दरमियान थे हम

मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
जाने अब क्या मिरी मिट्टी से ख़ुदा चाहता है

हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है

अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
कितना मुश्किल है बड़े हो के बड़े रहना भी

ख़ुद को इतना भी न बचाया कर
बारिशें हों तो भीग जाया कर

बात से बात की गहराई चली जाती है
झूट आ जाए तो सच्चाई चली जाती है

इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
मैं भी सवाल बन के सवालों में रह गया

मैं सो रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखने के लिए
ये आरज़ू है कि आँखों में रात रह जाए

हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
कुछ हुनर चाहिए बाज़ार में रहने के लिए

बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
ज़रा सा सब्र भी इन आँसुओं से होता नहीं

भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
चाँद आकाश पे थाली की तरह लगता है

जाने कैसा रिश्ता है रहगुज़र का क़दमों से
थक के बैठ जाऊँ तो रास्ता बुलाता है

कुछ दिनों के लिए मंज़र से अगर हट जाओ
ज़िंदगी भर की शनासाई चली जाती है

मेरे होंटों पे ख़ामुशी है बहुत
इन गुलाबों पे तितलियाँ रख दे

फिर यूँ हुआ थकन का नशा और बढ़ गया
आँखों में डूबता हुआ जादा लगा हमें

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Sootradhar