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प्रकृति प्रबोध

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प्रकृति प्रबोध
शक्ति-सिंधु के बीच भुवन को खेनेवाले,
गोचर, गण्य स्वरूप काल को देनेवाले।

विश्व-विभाजक के आगम आभास-मात्रा पर,
रहा कृष्ण अध्र्दांग काल का हट तिल-तिल-भर।

दृश्य भेद हैं लीन जगत के जिसमें सारे,
चेतन-वृत्ति समेट सृष्टि हैं जड़ता धारे।

'हम हैं' यह भी भूल जीव हैं जिसमें जीते,
नहीं जानते, किंतु पवन नाकों से पीते।

जीना कैसा? इसे जिलाया जाना कहिए,
पीना कैसा? इसे पिलाया जाना कहिए।

नहीं जानते जिसे कर्म वह कहाँ हमारा?
जहाँ न 'हम' हैं अलग, मूल हैं वहाँ हमारा?

कर्म जिसे करते न जानते, हैं वह सोना,
होकर भी हम नहीं जानते जिसमें होना।

कोई देख विराट रूप अपना घबराता,
गिरि, वन, सरि, पशु आदि सभी अपने में पाता।

सपना हैं क्या अपना रहना अपने भीतर,
चलना पैर पसार, देखना आँख मूँदकर?

समतल से सब सरक कालिमा सिमटी जाकर,
ऊँचों के पड़ पैर-तले, नींवों के भीतर।

वर्ण-भेद की लीकष् लोक लोचन ने डाली,
नीले नभ के आंचल की वह लटकी लाली।

जिससे लगी लहरती हैं वह जो हरियाली,
चित पर चढ़ती देख उसे चहकी चटकाली।

ज्ञान-द्वार खुल पडे, ग़ए जब वे खटकाएँ,
लक्षण थे जो लुप्त, गए अब वे सब पाए।

सारी पशुता, नरता, खगता आदि अधूरी,
जो अब तक थीं पड़ी, कला से निकलीं पूरी।

चलना, उड़ना और रेंगना दिया दिखाई,
हँसना, रोना और रँभाना पड़ा सुनाई।

इतना-उतना, ऐसा-वैसा व्यक्त हुए अब,
खुले भेद, तम भेद भुवन में ज्योति जगी जब।

कौआं ने चट छेड़ दिया यह पाठ पढ़ाना,
'भला बने या बुरा बने, बकते ही जाना।

कुकवि, कुतर्की नित्य कान इनसे फुँकवाते,
तब अपना मुँह खोल दूसरों का सिर खाते।

मानव-मानस-मुकुर महा खुल पड़ा मही पर,
सदा अमलता में जिसकी हैं पड़ती आकर।

परम भावमय के भावों की अंशच्छाया,
उतनी, जितनी में जीवन का जाल बिछाया।

देखा यह जो जगे भूत का जगना सोना,
ऐसा ही हैं घोर भूत-निद्रा का खोना।

यदि जागृति हैं सत्य, स्वप्न हैं उसकी छाया,
इन दोनों का साथ सदा से रहता आया।

यह दो-रंगी छटा नित्य शाश्वत अभंग हैं,
सोना, जगना, दोनों जिसमें संग-संग हैं।

उस छाया के बीच-बीच जो ज्योति फूटती,
अलग-अलग-सी लगती हैं वह नींद टूटती।

तृण, कृमि, पशु, नर आदि इसी जागृति के क्रम हैं,
जगने में कुछ बढे हुए, कुछ उनसे कम हैं।

जगने के इस जटिल यत्न में बीज फूटता,
उठने के कुछ पहले उसका अंग टूटता।

खोल खेत में आँख बीज एखुवा कहलाता,
मिट्टी मुँह में डाल, फूल तन में न समाता।

चलते फिरते अंगों में फिर लगता जाकर,
गड़ा जहाँ-का-तहाँ नहीं तब रहता भू पर।

गति-प्रसार हित चार पैर हैं कहीं हिलाता,
भू से कर्म-समर्थ करों को कहीं उठाता।

देखो! अब खेत और बस्ती, वन, बारी,
बहती हैं धवल धार मंद मंद प्यारी।

भटक रहे घूम-घूम नाले जो आए,
तीर की तरंगवती भूमि के भुलाए।

रस कर रस कलकल मृदु तान वह लड़ी हैं,
रेत चूर उसी राग-रंग में पड़ी हैं।

पुलकित हो उठे उधर टीले कँकरीले,
ढाल पर बबूल और झाड़ ले कँटीले।

शस्यावलि रस-रव पर नृत्य कर रही हैं,
जीवन-घट जिन जिनके हेतु भर रही हैं।

देते हैं सिर पर, कुछ मेंड़ पर दिखाई,
फड़क उठे पंख, जहाँ चरणचाप पाई।

चलने को और चले हाथ पैर नाना,
उड़ने को और ठना उड़ना, मँडराना।

झगड़ा सब इसी 'और' के लिए खड़ा हैं,
चोंच चली ईधर उधर से 'हड़ा-हड़ा' हैं।

('माधुरी', अप्रैल, 1924)

 

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