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रिक्शे पर एक सौ रातें

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गरदन के नीचे से खींच लिया हाथ।
बोली, – अन्धकार हयनि (नहीं हुआहै)!
सड़कों पर अब तक घर-वापसीका जुलूस।
दफ़्तर, दुकानें, अख़बारअब तक सड़कों पर।
किसी मन्दिर केखण्डहर में हम रुकें?
बह जाने देंचुपचाप इर्दगिर्द से समय?
गरदन केनीचे से उसने खींच ली तलवार!
कोई पागल घोड़े की तेज़ टाप बनकरआता है।
प्रश्नवाचक वृक्ष बाँहों में।डालों पर लगातार लटके हुए
चम-गादड़। रिक्शे वाला हँसता है चारबजे सुबह –
अन्धकार हयनि (नहींहुआ है)।
सिर्फ़, एक सौ रातों ने हमेंबताया, कि शाम को बन्द
किये गयेदरवाज़े सुबह नहीं खुलते हैं।

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Sootradhar