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प्रत्येक बार होता है प्रकृति के साथ
निद्रामयी अचेतन समाधिष्ठ प्रकृति के साथ
बर्बर पैशाची बलात्कार
जब भी मैं रचना चाहता हूँ कोई स्वप्न, कोई कविता
रक्तनलिका से
ब्रह्मनलिका तक कोई यात्रा पथ
मुझे सम्भोग करना होता है
विपरीत मुख बलत्कृता होकर ही वह मदालसा
सृष्टि ध्वजा दण्ड धारण करती है
अपने षटचक्र रथ पर
रति व्याकुल होकर
उत्तप्त रचना में
योगिनी-सहयोगिनी
स्थान, काल, पात्र की
शारीरिक-स्थितियों का
अगर शीलभंग करती है मेरी कविता
उसे अब और कुछ नहीं करना चाहिए
कुछ नहीं करना चाहिए।
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