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मुक्ति प्रसंग 2

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मेरा जन्म हुआ था
त्रिशूली पहाड़ की मन्त्र सिद्ध गुफ़ा में
काली मूर्त्ति के पार्श्व में सद्योजात छोड़कर मुझको
चली गई थी मेरी माँ
ग्रहण करने के लिए जल-समाधि
अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व
उसने स्वीकार किया था अपना अपराध
अथच वो वापस आ गई थी
देखकर नीचे घाटी में
एकाग्र प्रतीक्षारत शिशु-पक्षी गिद्ध
त्रिशूली गुफ़ा के उस संकेत-पथ पर
अतएव बिखरी हुई चट्टानों में अलग-अलग
बँटा हुआ है मेरा जीवन
बावन खण्डों में कटा हुआ
मेरी आँखों का आकाश
जिस पथ से भागती हुई मेरी काँ के घुटने
पाँव की उँगलियाँ
तलुवे, पिण्डलियाँ
नुकीली चट्टानों से हो गए थे लहूलुहान
लहू के छींटे , लहू के छींटॆ
मेरे आकाश के
अलग-अलग टुकड़ों को
सूर्यमुखी करते हुए
अब जिन्हें फिर से एक
अखण्ड सुमेरु बनाने के लिए
मैं एक-एक चट्टान क्रमशः
राजेन्द्र सर्जिकल अस्पताल के नीचे बहती हुई
गंगा नदी में फेंकता जा रहा हूँ
अपनी माँ तीर्थमयी के आरण्यक संस्मरणों में
आकाश के एक-एक टुकड़े
अलकनन्दा में
अन्ततः कविता में
वापस चली आने के कारण ही
अनिवार्य हो गया था माँ के लिए
वरण कर लेना मृत्यु
अन्ततः कविता में उसे जीवित करने के लिए
त्रिशूली गुफ़ा में
मन्त्र सिद्ध
मैंने जन्म ग्रहण किया है

 

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Sootradhar