
पता है मुझे
कविता से
कमसकम मेरी कविता से
न निज़ाम बदलता है,
न प्रेमिका मानती है
और न ही बादल आते हैं..
बहेलिया नहीं बदलता अपना मन
कुल्हाड़े लिए हाथ नहीं रुकते
कोई इंक़िलाब कहां आ पाता है कविताओं से
फिर भी
ख़ुद को ज़िंदा दिखने के लिए
लिखता हूं कुछ
क्या पता
अगर ज़िंदा रह गया तो
प्रेम, बारिश और इंक़लाब
सब आ जाए किसी दिन.
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