माँगे की घड़ी मुंशी प्रेम चंद
1
मेरी समझ में आज तक यह बात न आयी की लोग ससुराल जाते हैं, तो इतना ठाट-बाट क्यों बनाते हैं । आखिर इसका उद्देश्य क्या होता है ? हम अगर लखपती तो क्या, और रोटियों को मुहताज हैं तो क्या, विवाह तो हो ही चुका, अब इस ठाट का हमारे ऊपर क्या असर पड़ सकता है । विवाह के पहले तो उससे कुछ काम निकल सकता है। हमारी सम्पन्नता बातचीत पक्की करने में बहुत-कुछ सहायक हो सकती है। । लेकिन जब विवाह हो गया, देवीजी हमारे घर का सारा रहस्य जान गयीं और नि:सन्देह अपने माता-पिता से रो-रोकर अपने दुर्भाग्य की कथा भी कह सुनायी, तो हमारा यह ठाट हानि के सिवा लाभ नहीं पहुंचा सकता । फटेहालों देखकर, सम्भव है, हमारी सासजी को कुछ दया आ जाती और विदाई के बहाने कोई माकूल रकम हमारे हाथ लग जाती । यह ठाट देखकर तो वह अवश्य ही समझेंगी कि अब इसका सितारा चमक उठा है, जरूर कहीं-न-कहीं से माल मार लाया है । उधर नाई और कहार इनाम के लिए बड़े-बड़े मुँह फैलायेंगे, वह अलग । देवीजी को भी भ्रम हो सकता है । मगर यह सब जानते और समझते हुए मैंने परसाल होली में ससुराल जाने के लिए बड़ी-बड़ी तैयारियाँ कीं । रेशमी अचकन जिन्दगी में कभी न पहनी थी, फ्लैक्स के बूटों का भी स्वप्न देखा करता था । अगर नकद रुपये देने का प्रश्न होता, तो शायद यह स्वप्न, स्वप्न ही रहता, पर एक दोस्त की कृपा से दोनों चीजें उधार मिल गयीं । चमड़े का सूटकेस एक मित्र से माँग लाया । दरी फट गयी थी और नयी दरी उधार मिल भी सकती थी; लेकिन बिछावन ले जाने की मैंने ज़रूरत न समझी। अब केवल रिस्ट-वाच की और कमी थी । यों तो दोस्तों में कितने ही के पास रिस्ट-वाच थी-मेरे सिवा ऐसे अभागे बहुत कम होंगे, जिनके पास रिस्ट-वाच न हो-लेकिन मैं सोने की घड़ी चाहता था और वह केवल दानू के पास थी । मगर दानु से मेरी बेतकल्लुफी न थी । दानु रूखा आदमी था । मंगनी की चीजों का लेना और देना दोनों ही पाप समझता था । ईश्वर ने माना है, वह इस सिद्धान्त का पालन कर सकता है । मैं कैसे कर सकता हूँ । जानता था कि वह साफ इनकार करेगा, पर दिल न माना । खुशामद के बल पर मैंने अपने जीवन में बड़े-बड़े काम कर दिखाये हैं, इसी खुशामद की बदौललत -आज महीने में ३० रुपये फटकारता हूँ । एक हजार ग्रेजुएटों से कम उम्मीदवार न थे; लेकिन सब मुँह ताकते रह गये और बन्दा मूँछों पर ताव देता हुआ घर आया । जब इतना बड़ा पाला मार लिया, तो दो-चार दिन के लिए घड़ी माँग लाना कौन-सा बड़ा मुशकिल काम था । शाम को जाने की तैयारी थी । प्रात:काल दानु के पास पहुंचा और उनके छोटे बच्चे को, जो बैठक के सामने सहन में खेल रहा था, गोद में उठाकर लगा भींच-भींचकर प्यार करने। दानु ने पहले तो मुझे आते देखकर जरा त्योरियां चढ़ायी थीं, लेकिन मेरा यह वात्सल्य देखकर कुछ नरम पड़े, उनके ओंठों के किनारे जरा फैल गये। बोले-खेलने दो दुष्ट को, तुम्हारा कुरता मैला हुआ जाता है । मैं तो इसे कभी छूता भी नहीं ।
मैंने कृत्रिम तिरस्कार का भाव दिखाकर कहा -मेरा कुरता मैला हो रहा है न, आप इसकी क्यों फिक्र करते हैं । वाह ! ऐसा फूल-सा बालक और उसकी यह कदर । तुम-जैसों को तो ईश्वर नाहक सन्तान देता है । तुम्हें भारी मालूम होता है, तो लायो मुझे दे दो ।
यह कहकर मैंने बालक को कंधे पर बैठा लिया और सहन में कोई पन्द्रह मिनट तक उचकता फिरा। बालक खिलखिलाता था और मुझे दम न लेने देता था, यहाँ तक कि दानू ने उसे मेरे कन्धे से उतारकर जमीन पर बैठा दिया और बोले-कुछ पान-पत्ता तो लाया नहीं, उलटे सवारी कर बैठा । जा, अम्मां से पान बनवा ला ।
बालक मचल गया । मैंने उसे शान्त करने के लिए दानु को हलके हाथों दो-तीन धप जमाये और उनकी रिस्ट-वाच से सुसज्जित कलाई पकड़कर बोला-ले लो बेटा, इनकी घड़ी ले लो, यह बहुत मारा करते हैं तुम्हें । आप तो घड़ी लगाकर बैठे हैं और हमारे मुन्ने के पास नहीं ।
मैंने चुपके से रिस्ट-वाच खोलकर बालक की बांह में बांध दी और तब उसे गोद में उठाकर बोला-भैया, अपनी घड़ी हमें दे दो ।
सयाने बाप के बेटे भी सयाने होते हैं । बालक ने घड़ी को दूसरे हाथ से छिपाकर कहा-तुमको नईं देंगे !
मगर मैंने अन्त में उसे फुसलाकर घड़ी ले ली । और अपनी कलाई पर बाँध ली । बालक पान लेने चला गया । दानु बाबू अपनी घड़ी के गुणों की प्रशंसा करने लगे-ऐसी सच्ची समय बतानेवाली घड़ी -आज तक कम-से-कम मैंने नहीं देखी ।
मैंने अनुमोदन किया-है भी तो स्विस !
दानु-अजी, स्विस होने से क्या होता है । लाखों स्विस-घड़ियां देख चुका हूँ। किसी को सरदी, किसी को जुकाम, किसी को गठिया, किसी को लकवा। जब देखिए, तब अस्पताल में पड़ी हैं । घड़ी की पहचान चाहिए और यह कोई आसान काम नहीं । कुछ लोग समझते हैं, बहुत दाम खर्च कर देने से अच्छी घड़ी मिल जाती है । मैं कहता हूँ तुम गधे हो । दाम खर्च करने से ईश्वर नहीं मिला करता । ईश्वर मिलता है ज्ञान से और घड़ी भी मिलती है ज्ञान से । फासेट साहब को तो जानते होगे । बस, बन्दा ऐसों ही की खोज में रहता है । एक दिन आकर बैठ गया । शराब की चाट थी । जेब में रुपये नदारद । मैंने 25 रुपये में यह घड़ी ले ली । इसको तीन साल होते हैं और आज तक एक मिनट का फर्क नहीं पड़ा। कोई इसके सौ आँकता है, कोई दो सौ, कोई साढ़े तीन सौ, कोई पौने पाँच सौ; मगर मैं कहता हूँ, तुम सब गधे हो, एक हजार के नीचे ऐसी घड़ी नहीं मिल सकती । पत्थर पर पटक दो, क्या मजाल कि बल भी आये ।
मैं--तब तो यार, एक दिन के लिए मँगनी दे दो। बाहर जाना है। औरों को भी इसकी करामात सुनाऊँगा।
दानू -- मँगनी तो तुम जानते हो, मैं कोई चीज़ नहीं देता। क्यों नहीं देता, इसकी कथा सुनाने बैठूँ, तो अलिफ़लैला की दास्तान हो जाए। उसका सारांश यह है कि मँगनी में चीज़ देना मित्रता की जड़ खोदना, मुरव्वत का गला घोंटना और अपने घर आग लगाना है। आप बहुत उत्सुक मालूम होते हैं, इसलिए दो-एक घटनाएँ सुना ही दूँ। आपको फ़ुरसत है न? हाँ, आज तो दफ़्तर बंद है, तो सुनिए। एक साहब लालटेनें मँगनी ले गए। लौटाने आये तो चिमनियाँ सब टूटी हुईं। पूछा, यह आपने क्या किया, तो बोले -- 'जैसी गई थीं, वैसी आयीं। यह तो आपने नहीं कहा था कि इनके बदले नई लालटेनें लूँगा। वाह साहब, वाह! यह अच्छा रोज़गार निकाला।' बताइए, क्या करता। एक दूसरे महाशय क़ालीन ले गए।बदले में एक फटी हुई दरी ले आए। पूछा, तो बोले -- 'साहब, आपको तो यह दरी मिल भी गई, मैं किसके सामने जाकर रोऊँ, मेरी पाँच क़ालीनों का पता नहीं, कोई साहब सब समेट ले गए।' बताइए, उनसे क्या कहता? तबसे मैंने कान पकड़े कि अब किसी के साथ यह व्यवहार ही न करूँगा। सारा शहर मुझे बेमुरौवत, मक्खीचूस और जाने क्या-क्या कहता है, पर मैं परवाह नहीं करता। लेकिन आप बाहर जा रहे हैं और बहुत-से आदमियों से आपकी मुलाक़ात होगी। संभव है, कोई इस घड़ी का गाहक निकल आए, इसलिए आपके साथ इतनी सख़्ती न करूँग। हाँ, इतनी अवश्य कहूँगा कि मैं इसे निकालना चाहता हूँ और आपसे मुझे सहायता मिलने की पूरी उम्मीद है। अब कोई दाम लगाए, तो मुझसे आकर कहिएगा।
मैं यहाँ से कलाई पर घड़ी बाँधकर चला, तो ज़मीन पर पाँव न पड़ते थे। घड़ी मिलने की इतनी ख़ुशी न थी, जितनी एक मुड्ढ पर विजय पाने की। कैसा फाँसा है बचा को ! वह समझते थे कि मैं ही बड़ा सयाना हूँ, यह नहीं जानते थे कि यहाँ उनके भी गुरुघंटाल हैं।
2
उसी दिन शाम को मैं ससुराल जा पहुँचा। अब वह गुत्थी खुली कि लोग क्यों ससुराल जाते वक़्त इतना ठाट करते हैं। घर में हलचल पड़ गई। मुझ पर किसी की निगाह न थी। सभी मेरा साज-सामान देख रहे थे। कहार पानी लेकर दौड़ा, एक साला मिठाई की तश्तरी लाया, दूसरा पान की। नाइन झाँककर देख गई और ससुरजी की आँखों में तो ऐसा गर्व झलक रहा था, मानो संसार को उनके निर्वाचन-कौशल पर सिर झुकाना चाहिए। ३० रु॰ महीने का नौकर उस वक़्त ऐसी शान से बैठा हुआ था, जैसे बड़े बाबू दफ़्तर में बैठते हैं। कहार पंखा झल रहा था, नाइन पाँव धो रही थी, एक साला बिछावन बिछा रहा था, दूसरा धोती लिये खड़ा था कि मैं पाजामा उतारूँ। यह सब इसी ठाट की करामात थी।
रात को देवीजी ने पूछा--सब रुपये उड़ा आये कि कुछ बचा भी है?
मेरा सारा प्रेमोत्साह शिथिल पड़ गया, न क्षेम, न कुशल, न प्रेम की कोई बातचीत। बस, हाय रुपये! हाय रुपये! जी में आया कि इसी वक़्त उठकर चल दूँ। लेकिन ज़ब्त कर गया। बोला--मेरी आमदनी जो कुछ है, वह तो तुम्हें मालूम ही है।
'मैं क्या जानूँ, तुम्हारी क्या आमदनी है। कमाते होगे अपने लिए, मेरे लिए क्या करते हो? तुम्हें तो भगवान ने औरत बनाया होता, तो अच्छा होता। रात-दिन कंघी-चोटी किया करते। तुम नाहक़ मर्द बने। अपने शौक़-सिंगार से बचत ही नहीं, दूसरों की फ़िक्र क्या करोगे?'
मैंने झुँझलाकर कहा -- क्या तुम्हारी यही इच्छा है कि इसी वक़्त चला जाऊँ?
देवीजी ने भी त्योरियाँ चढ़ाकर कहा -- चले क्यों नहीं जाते, मैं तो तुम्हें बुलाने न गयी थी, या मेरे लिए कोई रोकड़ लाये हो?
मैंने चिंतित स्वर में कहा -- तुम्हारी निगाह में प्रेम का कोई मूल्य नहीं। जो कुछ है, वह रोकड़ ही है?
देवीजी ने त्योरियाँ चढ़ाए हुए ही कहा -- प्रेम अपने-आपसे करते होंगे, मुझसे तो नहीं करते।
'तुम्हें पहले तो यह शिकायत कभी न थी।'
'इससे यह तो तुमको मालूम ही हो गया कि मैं रोकर की परवा नहीं करती; लेकिन देखती हूँ कि ज्यों-ज्यों तुम्हारी दशा सुधर रही है, तुम्हारा हृदय भी बदल रहा है। इससे तो यही अच्छा था कि तुम्हारी वही दशा बनी रहती। तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँ, फटे-चीथड़े पहनकर दिन काट सकती हूँ; लेकिन यह नहीं हो सकता कि तुम चैन करो और मैं मैके में परी भाग्य को रोया करूँ। मेरा प्रेम उतना सहनशील नहीं है।'
सालों और नौकरों ने मेरा जो आदर-सम्मान किया था, उसे देखकर मैं अपने ठाट पर फूला न समाया था। अब यहाँ मेरी जो अवहेलना हो रही थी, उसे देखकर मैं पछता रहा था कि व्यर्थ ही यह स्वाँग भरा। अगर साधारण कपड़े पहने, रोनी सूरत बनाए आता, तो बाहरवाले चाहे अनादर ही करते, लेकिन देवीजी तो प्रसन्न रहतीं; पर अब तो भूल हो गई थी। देवीजी की बातों पर मैंने ग़ौर किया, तो मुझे उनसे सहानुभूति हो गई। यदि देवीजी पुरुष होतीं और मैं उनकी स्त्री, तो क्या मुझे यह किसी तरह भी सह्य होता कि वह तो छैला बनी घूमें और मैं पिंजरे में बंद दाने और पानी को तरसूँ। चाहिए यह था कि देवीजी से सारा रहस्य कह सुनाता; पर आत्मगौरव ने इसे किसी तरह स्वीकार न किया। स्वाँग भरना सर्वथा अनुचित था, लेकिन परदा खोलना तो भीषण पाप था। आख़िर मैंने फिर उसी ख़ुशामद से काम लेने का निश्चय किया, जिसने इतने कठिन अवसरों पर मेरा साथ दिया था। प्रेम-पुलकित कंठ से बोला -- प्रिये! सच कहता हूँ, मेरी दशा अब भी वही है; लेकिन तुम्हारे दर्शनों की इच्छा इतनी बलवती हो गई थी कि उधार कपड़े लिये, यहाँ तक कि अभी सिलाई भी नहीं दी। फटेहालों आते संकोच होता था कि सबसे पहले तुमको दुःख होगा और तुम्हारे घरवाले भी दुःखी होंगे। अपनी दशा जो कुछ है, वह तो है ही, उसका ढिंढोरा पीटना तो और भी लज्जा की बात है।
देवीजी ने कुछ शांत होकर कहा -- तो उधार लिया?
'और नक़द कहाँ धरा था?'
'घड़ी भी उधार ली?'
'हाँ, एक जान-पहचान की दूकान से ले ली।'
'कितने की है?'
बाहर किसी ने पूछा होता, तो मैंने ५०० रु॰ से कौड़ी कम न बताया होता, लेकिन यहाँ मैंने २५ रु॰ बताया।
'तब तो बड़ी सस्ती मिल गई।'
'और नहीं तो मैं फँसता ही क्यों?'
'इसे मुझे देते जाना।'
ऐसा जान पड़ा, मेरे शरीर में रक्त ही न रहा। सारे अवयव निस्पंद हो गए। इनकार करता हूँ, तो नहीं बचता; स्वीकार करता हूँ, तो भी नहीं बचता। आज प्रातःकाल यह घड़ी मँगनी पाकर मैं फूला न समाया था। इस समय वह ऐसी मालूम हुई, मानो कौड़ियाला गेंडली मारे बैठा हो, बोला -- तुम्हारे लिए कोई अच्छी घड़ी ले लूँगा।
'जी नहीं, माफ़ कीजिए, आप ही अपने लिए दूसरी घड़ी ले लीजिएगा। मुझे तो यही अच्छी लगती है। कलाई पर बाँधे रहूँगी। जब-जब इस पर आँखें पड़ेंगी, तुम्हारी याद आएगी। देखो, तुमने आज तक मुझे फूटी कौड़ी भी कभी नहीं दी। अब इनकार करोगे, तो फिर कोई चीज़ न माँगूँगी।
देवीजी के कोई चीज़ न माँगने से मुझे किसी विशेष हानि का भय न होना चाहिए था, बल्कि उनके इस विराग का स्वागत करना चाहिए था, पर न-जाने क्यों मैं डर गया। कोई ऐसी युक्ति सोचने लगा कि वह राज़ी हो जाएँ और घड़ी भी न देनी पड़े। बोला -- घड़ी क्या चीज़ है, तुम्हारे लिए जान हाज़िर है, प्रिय! लाओ तुम्हारी कलाई पर बाँध दूँ, लेकिन बात यह है कि वक़्त का ठीक-ठीक अंदाज़ न होने से कभी-कभी दफ़्तर पहुँचने में देर हो जाती है और व्यर्थ की फटकार सुननी पड़ती है। घड़ी तुम्हारी है, किंतु जब तक दूसरी घड़ी न ले लूँ, इसे मेरे पास रहने दो। मैं बहुत जल्द कोई सस्ते दामों की घड़ी अपने लिए ले लूँगा और तुम्हारी घड़ी तुम्हरे पास भेज दूँग। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी।
देवीजी ने अपनी कलाई पर घड़ी बाँधते हुए कहा -- राम जाने, तुम बड़े चकमेबाज़ हो, बातें बनाकर काम निकालना चाहते हो। यहाँ ऐसी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। यहाँ से जाकर दो-चार दिन में दूसरी घड़ी ले लेना! दो-चार दिन ज़रा सबेरे दफ़्तर चेले जाना।
अब मुझे और कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। कलाई से घड़ी के जाते ही हृदय पर चिंता का पहाड़-सा बैठ गया। ससुराल में दो दिन रहा, पर उदास और चिंतित। दानू बाबू को क्या जवाब दूँगा, यह प्रश्न किसी गुप्त वेदना की भाँति चित्त को मसोसता रहा।
3
घर पहुँचकर जब मैंने सजल नेत्र होकर दानू बाबू से कहा -- 'घड़ी तो कहीं खो गई' तो खेद या सहानुभूति का एक शब्द भी मुँह से निकालने के बदले उन्होंने बड़ी निर्दयता से कहा -- इसीलिए मैं तुम्हें घड़ी न देता था! आख़िर वही हुआ, जिसकी मुझे शंका थी। मेरे पास वह घड़ी तीन साल रही, एक दिन भी इधर-उधर न हुई। तुमने तीन दिन में वारा-न्यारा कर दिया। आख़िर कहाँ गये थे?
मैं तो डर रहा था कि दानू बाबू न-जाने कितनी घुड़कियाँ सुनाएँगे। उनकी यह क्षमाशीलता देखकर मेरी जान-में-जान आयी। बोला -- ज़रा ससुराल चला गया था।
'तो भाभी को लिवा लाए?'
'जी, भाभी को लिवा लाता! अपनी गुज़र होती ही नहीं, भाभी को लिवा लाता?'
'आख़िर तुम इतना कमाते हो, वह क्या करते हो?'
'कमाता क्या हूँ अपना सिर? ३० रु॰ महीने का नौकर हूँ?
'तो तीसों ख़र्च कर डालते हो?'
'क्या ३० रु॰ मेरे लिए बहुत हैं?'
'जब तुम्हारी कुल आमदनी ३० रु॰ है, तो यह सब अपने ऊपर ख़र्च करने का तुम्हें अधिकार नहीं है। बीवी कब तक मैके में पड़ी रहेगी?'
'जब तक और तरक़्क़ी नहीं होती तब तक मजबूरी है! किस बिरते पर बुलाऊँ?'
'और तरक़्क़ी दो-चार साल न हो तो?'
'यह तो ईश्वर ही ने कहा है। इधर तो ऐसी आशा नहीं है।'
'शाबाश! तब तो तुम्हारी पीठ ठोकनी चाहिए। और कुछ काम क्यों नहीं करते? सुबह को क्या करते हो?'
'सारा वक़्त नहाने-धोने, खाने-पीने में निकल जाता है। फिर दोस्तों से मिलना-जुलना भी तो है।'
'तो भाई, तुम्हारा रोग असाध्य है। ऐसे आदमी के साथ मुझे लेश मात्र भी सहानुभूति नहीं हो सकती। आपको मालूम है, मेरी घड़ी ५०० रु॰ की थी। सारे रुपये आपको देने होंगे। आप अपने वेतन में से १५ रु॰ महीना मेरे हवाले रखते जाइए। इस प्रकार ढाई साल में मेरे रुपये पट जाएँ तो ख़ूब जी खोलकर दोस्तों से मिलिएगा। समझ गए न? मैंने ५० रु॰ छोड़ दिए हैं, इससे अधिक रिआयत नहीं कर सकता।'
'१५ रु॰ में मेरा गुज़र कैसे होगा?'
'गुज़र तो लोग ५ रु॰ में भी करते हैं और ५०० रु॰ में भी। इसकी न चलाओ, अपनी सामर्थ्य देख लो।'
दानू बाबू ने जिस निष्ठुरता से ये बातों कीं, उससे मुझे विश्वास हो गया कि अब इनके सामने रोना-धोना व्यर्थ है। यह अपनी पूरी रक़म लिये बिना न मानेंगे। घड़ी अधिक से अधिक २०० रु॰ की थी। लेकिन इससे क्या होता है! उन्होंने तो पहले ही उसका दाम बता दिया था। अब उस विषय पर मीन-मेष विचार करने का मुझे साहस कैसे हो सकता था? किस्मत ठोककर घर आया। यह विवाह करने का मज़ा है! उस वक़्त कैसे प्रसन्न थे, मानो चारों पदार्थ मिले जा रहे थे। अब नानी के नाम को रोओ। घड़ी का शौक़ चर्राया था, उसका फल भोगो! न घड़ी बाँधकर जाते, तो ऐसी कौन-सी किरकिरी हुई जाती थी। मगर तब तुम किसकी सुनते थे? देखें १५ रु॰ में कैसे गुज़र करते हो। ३० रु॰ में तो तुम्हारा पूरा ही न पड़ता था, १५ रु॰ में तुम क्या भुना लोगे?
इन्हीं चिंताओं में पड़ा-पड़ा मैं सो गया। भोजन करने की भी सुधि न रही!
4
ज़रा सुन लीजिए कि ३० रु॰ में कैसे गुज़र करता था -- २० रु॰ तो होटल को देता था! ५ रु॰ नाश्ते का ख़र्च था और बाक़ी ५ रु॰ में पान, सिगरेट, कपड़े, जूते, सब कुछ! मैं कौन राजसी ठाट से रहता था, ऐसी कौन-सी फ़िज़ूलख़र्ची करता था कि अब ख़र्च में कमी करता। मगर दानू बाबू का क़र्ज़ तो चुकाना ही था। रोकर चुकाता या हँसकर। एक बार जी में आया कि ससुराल में जाकर घड़ी उठा लाऊँ, लेकिन दानू बाबू से कह चुका था घड़ी खो गई। अब घड़ी लेकर आऊँगा, तो यह मुझे झूठा और लबाड़िया समझेंगे। मगर क्या मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने समझा था कि घड़ी खो गई, ससुराल गया तो उसका पता चल गया। मेरी बीवी ने उड़ा दी थी। हाँ, यह चाल अच्छी थी। लेकिन देवीजी से क्या बहाना करूँगा? उसे कितना दुःख होगा। घड़ी पाकर कितनी ख़ुश हो गई थी! अब जाकर घड़ी छीन लाऊँ, तो शायद फिर मेरी सूरत भी न देखे। हाँ, यह हो सकता था कि दानू बाबू के पास जाकर रोता। मुझे विश्वास था कि आज क्रोध में उन्होंने चाहे कितनी ही निष्ठुरता दिखाई हो, लेकिन दो-चार दिन के बाद जब उनका क्रोध शांत हो जाए और मैं जाकर उनके सामने रोने लगूँ, तो उन्हें अवश्य दया आ जाएगी। बचपन की मित्रता हृदय से नहीं निकल सकती। लेकिन मैं इतना आत्मगौरव-शून्य न था और न हो सकता था।
मैं दूसरे ही दिन एक सस्ते होटल में उठ गया। यहाँ १२ रु॰ में ही प्रबंध हो गया। सुबह को दूध और चाय से नाश्ता करता था। अब छटाँक भर चनों पर बसर होने लगी। १२ रु॰ तो यों बचे। पान, सिगरेट आदि की मद में ३ रु॰ और कम किए। और महीने के अंत में साफ़ १५ रु॰ बचा लिये। यह विकट तपस्या थी। इंद्रियों का निर्दय दमन ही नहीं, पूरा संन्यास था। पर जब मैंने ये १५ रु॰ ले जाकर दानू बाबू के हाथ में रखे, तो ऐसा जान पड़ा, मानो मेरा मस्तक ऊँचा हो गया है। ऐसे गौरवपूर्ण आनंद का अनुभव मुझे जीवन में कभी न हुआ था।
दानू बाबू ने सहृदयता के स्वर में कहा -- बचाए या किसी से माँग लाए?
'बचाया है भाई, माँगता किससे?'
'कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई?'
'कुछ नहीं। अगर कुछ तकलीफ़ हुई भी, तो इस वक़्त भूल गई।'
'सुबह को तो अब भी ख़ाली रहते हो? आमदनी कुछ और बढ़ाने की फ़िक्र क्यों नहीं करते?'
'चाहता तो हूँ कि कोई काम मिल जाए तो कर लूँ; पर मिलता ही नहीं।'
यहाँ से लौटा, तो मुझे अपने हृदय में एक नवीन बल, एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था। अब तक जिन इच्छाओं को रोकना कष्टप्रद जान पड़ता था, अब उनकी ओर ध्यान भी न जाता था। जिस पान की दूकान को देखकर चित्त अधीर हो जाता था, उसके सामने से मैं सिर उठाए निकल जाता था, मानो अब मैं उस सतह से कुछ ऊँचा उठ गया हूँ; सिगरेट, चाय और चाट अब इनमें से किसी पर भी चित्त आकर्षित न होता था। प्रातःकाल भीगे हुए चने, दोनों जून रोटी और दाल। बस, इसके सिवा मेरे लिए और सभी चीज़ें त्याज्य थीं, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे जीवन से विशेष रुचि हो गई थी। मैं ज़िंदगी से बेज़ार, मौत के मुँह का शिकार बनने का इच्छुक न था। मुझे ऐसा आभास होता था कि मैं जीवन में कुछ कर सकता हूँ।
एक मित्र ने एक निन मुझसे पान खाने के लिए बड़ा आग्रह किया, पर मैंने न खाया। तब वह बोले -- तुमने तो यार, पान छोड़कर कमाल कर दिया। मैं अनुमान ही न कर सकता था कि तुम पान छोड़ दोगे। हमें भी कोई तरकीब बताओ।
मैंने मुस्कराकर कहा -- उसकी तरकीब यही है कि पान न खाओ।
'जी तो नहीं मानता।'
'आप ही मान जाएगा।'
'बिना सिगरेट पिए, तो मेरा पेट फूलने लगता है।'
'फूलने दो, आप पिचक जाएगा।'
'अच्छा तो लो, आज मैंने पान-सिगरेट छोड़ा।'
'तुम क्या छोड़ोगे? तुम नहीं छोड़ सकते।'
मैंने उनको उत्तेजित करने के लिए यह शंका की थी। इसका यथेष्ट प्रभाव पड़ा! वह दृढ़ता से बोले -- तुम यदि छोड़ सकते हो, तो मैं भी छोड़ सकता हूँ। मैं तुमसे किसी बात में कम नहीं हूँ।
'अच्छी बात है, देखूँगा।'
'देख लेना।
मैंने इन्हें आज तक पान या सिगरेट का सेवन करते नहीं देखा।
पाँचवें महीने मैं जब रुपये लेकर दानू बाबू के पास गया, सच मानो, वह टूटकर मेरे गले से लिपट गए! बोल -- हो तो यार, तुम धुन के पक्के। मगर सच कहना, मुझे मन में कोसते तो नहीं?
मैंने हँसकर कहा -- अब तो नहीं कोसता, मगर पहले ज़रूर कोसता था।
'अब क्यों इतनी कृपा करने लगे?'
'इसलिए कि मुझ जैसी स्थिति के आदमी को जिस तरह रहना चाहिए, वह तुमने सिखा दिया! मेरी आमदनी में आधा मेरी स्त्री का है। पर अब तक मैं उसका हिस्सा भी हड़प कर जाता था। अब मैं इस योग्य हो रहा हूँ कि उसका हिस्सा उसे दे दूँ, या स्त्री को अपने साथ रखूँ। तुमने मुझे बहुत अच्छा पाठ दे दिया।'
'अगर तुम्हारी आमदनी कुछ बढ़ जाए तो फिर उसी तरह रहने लगोगे!'
'नहीं, कदापि नहीं। अपनी स्त्री को बुला लूँगा।'
'अच्छा, तो ख़ुश हो जाओ; तुम्हारी तरक़्क़ी हो गई है।'
मैंने अविश्वास के भाव से कहा -- मेरी तरक़्क़ी अभी क्या होगी? अभी मुझसे पहले के लोग पड़े नाक रगड़ रहे हैं?
'कहता हूँ, मान जाओ। मुझसे तुम्हारे बड़े बाबू कहते थे।'
मुझे अब भी विश्वास न आया। पर मारे कुतूहल के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उधर दानू बाबू अपने घर गये, इधर मैं बड़े बाबू के घर पहुँचा। बड़े बाबू बैठ अपनी बकरी दुह रहे थे। मुझे देखा, तो झेंपते हुए बोले -- क्या करें भाई, आज ग्वाला नहीं आया, इसीलिए यह बला गले पड़ी। चलो, बैठो।
मैं कमरे में जा बैठा। बाबूजी भी कोई आध घंटे के बाद हाथ में गुड़गुड़ी लिए निकले और इधर-उधर की बातें करते रहे। आख़िर मुझसे न रहा गया, बोला -- मैंने सुना है, मेरी कुछ तरक़्क़ी हो गई है।
बड़े बाबू ने प्रसन्नमुख होकर कहा -- हाँ भई, हुई तो है। तुमसे दानू बाबू ने कहा होगा।
'जी हाँ, अभी कहा है। मगर मेरा नंबर तो अभी नहीं आया, तरक़्क़ी कैसे हुई?'
'यह न पूछो, अफ़सरों की निगाह चाहिए, नंबर-संबर कौन देखता है।'
'लेकिन आख़िर मुझे किसकी जगह मिली? अभी कोई तरक़्क़ी का मौक़ा भी तो नहीं।'
'कह दिया, भाई अफ़सर लोग सब कुछ कर सकते हैं। साहब एक दूसरी मद से तुम्हें १५ रु॰ महीना देना चाहते हैं। दानू बाबू ने साहब से कहा-सुना होगा।'
'किसी दूसरे का हक़ मारकर तो मुझे ये रुपये नहीं दिये जा रहे हैं?'
'नहीं, यह बात नहीं। मैं ख़ुद इसे मंज़ूर न करता।'
महीना गुज़रा, मुझे ४५ रु॰ मिले। मगर रजिस्टर में मेरे नाम के सामने वही ३० रु॰ लिखे थे। बड़े बाबू ने अकेले बुलाकर मुझे रुपये दिये और ताक़ीद कर दी कि किसी से कहना मत, नहीं दफ़्तर में बावेला मच जाएगा। साहब का हुक्म है कि यह बात गुप्त रखी जाए।
मुझे संतोष हो गया कि किसी सहकारी का गला घोंटकर मुझे रुपये नहीं दिए जए। ख़ुश-ख़ुश रुपये लिये सीधा दानू बाबू के पास पहुँचा। वह मेरी बाछें खिली देखकर बोले -- मार लाये तरक़्क़ी, क्यों?
'हाँ यार, रुपये तो १५ मिले; लेकिन तरक़्क़ी नहीं हुई, किसी और मद से दिये जए हैं।'
'तुम्हें रुपये से मतलब है, चाहे किसी मद से मिलें। तो अब बीवी को लेने जाओगे न?'
'नहीं, अभी नहीं।'
'तुमने तो कहा था, आमदनी बढ़ जाएगी, तो बीवी को लाऊँगा, अब क्या हो गया?'
'मैं सोचता हूँ, पहले रुपये पटा दूँ। अब से ३० रु॰ महीने देता जाऊँगा, साल भर में पूरे रुपये पट जाएँगे। तब मुक्त हो जाऊँगा।'
दानू बाबू की आँखें सजल हो गई। मुझे आज अनुभव हुआ कि उनकी इस कठोर आकृति के नीचे कितना कोमल हृदय छिपा हुआ था। बोले -- नहीं, अबकी मुझे कुछ मत दो। रेल का ख़र्च पड़ेगा, वह कहाँ से दोगे! जाकर अपनी स्त्री को ले आओ।
मैंने दुविधा में पड़कर कहा -- यार, अभी न मजबूर करो। शायद किश्त न अदा कर सकूँ तो?
दानू बाबू ने मेरा हाथ पकड़कर कहा -- तो कोई हरज नहीं। सच्ची बात यह है कि मैं अपनी घड़ी के दाम पा चुका। मैंने तो उसके २५ रु॰ ही दिये थे। उस पर तीन साल काम ले चुका था। मुझे तुमसे कुछ न लेना चाहिए था। अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित हूँ।
मेरी आँखें भी भर आयीं। जी में तो आया, घड़ी का सारा रहस्य कह सुनाऊँ, लेकिन ज़ब्त कर गया। गदगद कंठ से बोला -- नहीं दानू बाबू, मुझे रुपये अदा कर लेने दो। आख़िर तुम उस घड़ी को चार पाँच सो में बेच लेते या नहीं? मेरे कारण तुम्हें इतना नुक़सान क्यों हो?
'भाई, अब घड़ी की चर्चा न कहो। यह बताओ, कब जाओगे?'
'अरे, तो पहले रहने का तो ठीक कर लूँ।'
'तुम जाओ, मैं मकान का प्रबंध कर रक्खूँगा।'
'मगर मैं ५ रु॰ से ज़्यादा किराया न दे सकूँगा। शहर से ज़रा हटकर मकान सस्ता मिल जाएगा।'
'अच्छी बात है, मैं सब ठीक कर रक्खूँगा । किस गाड़ी से लौटोगे?'
'यह अभी क्या मालूम। विदाई का मामला है, साइत बने या न बने, या लोग एकाध दिन रोक ही लें। तुम इस झंझमें क्यों पड़ोगे? मैं दो-चार दिन में मकान ठीक करके चला जाऊँगा।'
'जी नहीं, आप आज जाइए और कल आइए।'
'तो उतरूँगा कहाँ?'
'मैं मकान ठीक कर लूँगा। मेरा आदमी तुम्हें स्टेशन पर मिलेगा।'
मैंने बहुत हीले-हवाले किए, पर उस भले आदमी ने एक न सुनी। उसी दिन मुझे ससुराल जाना पड़ा।
5
मुझे ससुराल में तीन दिन लग गए। चौथे दिन पत्नी के साथ चला। जी में डर रहा था कि कहीं दानू ने कोई आदमी न भेजा हो तो कहाँ उतरूँगा, कहाँ को जाऊँगा। आज चौथा दिन है। उन्हें इतनी क्या ग़रज़ पड़ी है कि बार-बार स्टेशन पर अपना आदमी भेजें। गाड़ी में सवार होते समय इरादा हुआ कि दानू को तार से अपने आने की सूचना दे दूँ। लेकिन बारह आने का ख़र्च था, इससे हिचक गया।
मगर जब गाड़ी बनारस पहुँची, तो देखता हूँ कि दानू बाबू स्वयं कोट-हैट लगाए, दो कुलियों के साथ खड़े हैं। मुझे देखते ही दौड़े और बोले -- ससुराल की रोटियाँ बड़ी प्यारी लग रही थीं क्या? तीन दिन से रोज़ दौड़ रहा हूँ, जुरमाना देना पड़ेगा।
देवीजी सिर से पाँव तक चादर ओढ़े, गाड़ी से उतरकर प्लेटफ़ार्म पर खड़ी हो गई थीं। मैं चाहता था, जल्दी से गाड़ी में बैठकर यहाँ से चल दूँ। घड़ी उनकी कलाई पर बँधी हुई थी। मुझे डर लग रहा था कि कहीं उन्होंने हाथ बाहर निकाला और दानू की निगाह घड़ी पर गई, तो बड़ी झेंप होगी। मगर तक़दीर का लिखा कौन टाल सकता है? मैं देवीजी से दानू बाबू की सज्जनता का ख़ूब बखान कर चुका था। अब जो दानू उसके समीप आकर संदूक़ उठाने लगे, तो देवीजी ने दोनों हाथों से उन्हें नमस्कार किया। दानू ने उनकी कलाई पर घड़ी देख ली। उस वक़्त तो क्या बोलते; लेकिन ज्यों ही देवीजी को एक ताँगे पर बिठाकर हम दोनों दूसरे ताँगे पर बैठकर चले, दानू ने मुस्कराकर कहा -- क्या घड़ी देवीजी ने छिपा दी थी?
मैंने शर्माते हुए कहा -- नहीं यार, मैं ही दे आया था। दे क्या आया था, उन्होंने मुझसे छीन ली थी।
दानू ने मेरा तिरस्कार करके कहा -- तो मुझसे झूठ क्यों बोले?
'फिर क्या करता?'
'अगर तुमने साफ़ कह दिया होता, तो शायद मैं इतना कमीना नहीं हूँ कि तुमसे उसका तावाना वसूल करता; लेकिन ख़ैर, ईश्वर का कोई काम मसलहत से ख़ाली नहीं होता। तुम्हें कुछ दिनों ऐसी तपस्या की ज़रूरत थी।'
'मकान कहाँ ठीक किया है?'
'वहीं तो चल रहा हूँ।'
'क्या तुम्हारे घर के पास ही है? तब तो बड़ा मज़ा रहेगा।'
'हाँ, मेरे घर से मिला हुआ है, मगर बहुत सस्ता।'
दानू बाबू के द्वार पर दोनों ताँगे रुके। आदमियों ने दौड़कर असबाब उतारना शुरू किया। एक क्षण में दानू बाबू की देवीजी घर में से निकलकर ताँगे के पास आयीं और पत्नीजी को साथ ले गयीं। मालूम होता था, यह सारी बातें पहले ही से सधी-बधी थीं।
मैंने कहा -- तो यह कहो कि हम तुम्हारे बिना- बुलाए मेहमान हैं।
'अब तुम अपनी मरज़ी का कोई मकान ढूँढ़ लेना। दस-पाँच दिन तो यहाँ रहो।'
लेकिन मुझे यह ज़बरदस्ती की मेहमानी अच्छी न लगी। मैंने तीसरे ही दिन एक मकान तलाश कर लिया। बिदा होते समय दानू ने १०० रु॰ लाकर मेरे सामने रख दिए और कहा -- यह तुम्हारी अमानत है। लेते जाओ!
मैंने विस्मय से पूछा -- मेरी अमानत कैसी?
दानू ने कहा -- १५ रु॰ के हिसाब से ६ महीने के ९० रु॰ हुए और १० रु॰ सूद।
मुझे दानू की यह सज्जनता बोझ के समान लगी। बोला -- तो तुम घड़ी ले लेना चाहते हो?
'फिर घड़ी का ज़िक्र किया तुमने! उसका नाम मत लो।'
'तुम मुझे चारों ओर से दबाना चाहते हो।'
'हाँ, दबाना चाहता हूँ फिर? तुम्हें आदमी बना देना चाहता हूँ, नहीं तो उम्र भर तुम यहाँ होटल की रोटियाँ तोड़ते और तुम्हारी देवीजी वहाँ बैठी तुम्हारे नाम को रोतीं। कैसी शिक्षा दी है, इसका एहसान तो न मानोगे।'
यों कहो, तो आप मेरे गुरु बने हुए थे?'
'जी हाँ, ऐसे गुरु की तुम्हें ज़रूरत थी।'
मुझे विवश होकर घड़ी का ज़िक्र करना पड़ा। डरते-डरते बोला --
'तो भाई घड़ी .... '
'फिर तुमने घड़ी का नाम लिया!'
'तुम ख़ुद मुझे मजबूर कर रहे हो।'
'वह मेरी ओर से भावज को उपहार है।'
'और ये १०० रु॰ मुझे उपहार मिले हैं।'
'जी हाँ, यह इम्तहान में पास होने का इनाम है।'
'तब तो डबल उपहार लिया है।'
'तुम्हारी तक़दीर ही अच्छी है, क्या करूँ।'
मैं रुपये यों न लेता था, पर दानू ने मेरी जेब में डाल दिये। लेने पड़े। इन्हें मैंने सेविंग बैंक में जमा कर दिया। १० रु॰ महीने पर मकान लिया था। ३० रु॰ महीने ख़र्च करता था। ५ रु॰ बचने लगे। अब मुझे मालूम हुआ कि दानू बाबू ने मुझे छः महीना तक यह तपस्या न कराई होती, तो सचमुच मैं न-जाने कितने दिनों तक देवीजी को मैके में पड़ा रहने देता। उसी तपस्या की बरकत थी कि आराम से ज़िंदगी कट रही थी, ऊपर से कुछ न कुछ जना होता जाता था। मगर घड़ी का क़िस्सा मैंने आज तक देवीजी से नहीं कहा। पाँचवें महीने में मेरी तरक़्क़ी का नंबर आया। तरक़्क़ी का परवाना मिला। मैं सोच रहा था कि देखूँ, अबकी दूसरी मदवाले १५ रु॰ मिलते हैं या नहीं। पहली तारीख़ को वेतन मिला, वही ४५ रु॰ । मैं एक क्षण खड़ा रहा कि शायद बड़े बाबू दूसरी मदवाले रुपये भी दें। जब और लोग अपने-अपने वेतन लेकर चले गये, तो बड़े बाबू बोले -- क्या अभी लालच घेरे हुए है? अब और कुछ न मिलेगा।
मैंने लज्जित होकर कहा -- जी नहीं, इस ख़याल से नहीं खड़ा हूँ। साहब ने इतने दिनों तक परवरिश की, यह क्या थोड़ा है। मगर कम से कम इतना तो बता दीजिए कि किस मद से यह रुपया दिया जाता था?
बड़े बाबू -- पूछकर क्या करोगे?
'कुछ नहीं, यों ही जानने को जी चाहता है।'
'जाकर दानू बाबू से पूछो।'
'दफ़्तर का हाल दानू बाबू क्या जान सकते हैं?'
'नहीं, यह हाल वही जानते हैं।'
मैंने बहर आकर एक ताँगा किया और दानू के पास पहुँचा। आज पूरे दस महीने के बाद मैंने ताँगा किराये पर किया। इस रहस्य को जानने के लिए मेरा दम घुट रहा था। दिल में तय कर लिया था कि अगर बचा ने यह षड्यंत्र रचा होगा, तो बुरी तरह ख़बर लूँगा। आप बगीचे में टहल रहे थे। मुझे देखा तो घबराकर बोले -- कुशल तो है, कहाँ से भागे आते हो?
मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाकर कहा -- मेरे यहाँ तो कुशल है; लेकिन तुम्हारी कुशल नहीं।
'क्यों भाई, क्या अपराध हुआ है?'
'आप बतलाइए कि पाँच महीने तक मुझे जो १५ रु॰ वेतन के ऊपर से मिलते थे, वह कहाँ से आते थे?'
'तुमने बड़े बाबू से नहीं पूछा? तुम्हारे दफ़्तर का हाल मैं क्या जानूँ।'
मैं आजकल दानू से बेतकल्लुफ़ हो गया था। बोला -- देखो दानू, मुझसे उड़ोगे, तो अच्छा न होगा। क्यों नाहक़ मेरे हाथों पिटोगे।
'पीटना चाहो, तो पीट लो भाई, सैकड़ों ही बार पीटा है, एक बार और सही। बार पर से जो ढकेल दिया था, उसका निशान बना हुआ है, यह देखो।'
'तुम टाल रहे हो और मेरा दम घुट रहा है। सच बताओ, क्या बात थी?'
'बात-वात कुछ नहीं थी। मैं जानता था कि कितनी ही किफ़ायत करोगे, ३० रु॰ में तुम्हारा गुज़र न होगा। और न सही, दोनों वक़्त रोटियाँ तो हों। बस, इतनी बात है। अब इसके लिए जो चाहो, दंड दो।'