
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा
मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं
मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी
वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा
इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चाँद
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया
कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए
और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं
देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा
क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा
वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया
बराबरी का भी होता तो सब्र आ जाता
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चाँद
बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की
और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना
मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई
वो शख़्स आ के मिरे शहर से चला भी गया
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ
हारने में इक अना की बात थी
जीत जाने में ख़सारा और है
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई
बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की
चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी
बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन
वो जानता था कि है एहतिमाम किस के लिए
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की
यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था
हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
बारहा तेरा इंतिज़ार किया
अपने ख़्वाबों में इक दुल्हन की तरह
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से माँगता है
अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिए
राय पहले से बना ली तू ने
दिल में अब हम तिरे घर क्या करते
देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़
माँगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती
उस के यूँ तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई
जी नहीं ये मानता वो बेवफ़ा पहले से था
मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया
तुझे मनाऊँ कि अपनी अना की बात सुनूँ
उलझ रहा है मिरे फ़ैसलों का रेशम फिर
अपने क़ातिल की ज़ेहानत से परेशान हूँ मैं
रोज़ इक मौत नए तर्ज़ की ईजाद करे
उस ने मुझे दर-अस्ल कभी चाहा ही नहीं था
ख़ुद को दे कर ये भी धोका, देख लिया है
दरवाज़ा जो खोला तो नज़र आए खड़े वो
हैरत है मुझे आज किधर भूल पड़े वो
काँटों में घिरे फूल को चूम आएगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा
कभी कभार उसे देख लें कहीं मिल लें
ये कब कहा था कि वो ख़ुश-बदन हमारा हो
पास जब तक वो रहे दर्द थमा रहता है
फैलता जाता है फिर आँख के काजल की तरह
रस्ते में मिल गया तो शरीक-ए-सफ़र न जान
जो छाँव मेहरबाँ हो उसे अपना घर न जान
जुगनू को दिन के वक़्त परखने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए
तू बदलता है तो बे-साख़्ता मेरी आँखें
अपने हाथों की लकीरों से उलझ जाती हैं
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है
चिड़ियों को बहुत प्यार था उस बूढे शजर से
हाथ मेरे भूल बैठे दस्तकें देने का फ़न
बंद मुझ पर जब से उस के घर का दरवाज़ा हुआ