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ज़िंदगी से हार मान ली मैंने...

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ज़िंदगी से हार मान ली मैंने
अपनी ही रेखा लांघ ली मैंने
सबको इसमें ही अगर सन्तोष है
सबकी इच्छा गांठ बांध ली मैंने

ज़िंदगी में झूठ हैं सच हैं कई
तुझसे बढ़कर कई सच है ही नहीं
इससे-उससे सबसे ही ऊपर है तू
सोच कर देखा तो तू कुछ भी नहीं

ज़िंदगी ये समय गुज़र जाए बस
एक बार पार ही हो जाऊं बस
फिर कभी आना ही पड़े तो सजन
फांस कोई गले में न डालूं बस

ज़िंदगी दुखती हुऊ एक रग़ मुई
आह भर कर बैठी हुई चीड़-सी
ये कभी भी उबलता चिनाब-सा
आज बहती मोरी से धारा कोई

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Sootradhar