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उबली, खौलकर ये बाहर आयी है
कविता है उधार की न जाई है
पानियों के नीचे से भी कई हाथ
डूब कर होती ये पार आयी है
आज न आयी तो कल रखो उम्मीद
गुंजलक से भरी पगडंडी अजीब
देखा-देखी तो बलम हो जाने दो
तेरे हाथों में नहीं मेरा नसीब
चित्त में यादें तेरी, मेरा स्वभाव
गूंगा कुछ तो मांगता है पर है क्या
यादों के आंगन में बेवजह बहसें
बातों के वो तथ्य क्या पाये भला
झांकता पहाड़ियों से कौन है
मानो बुलाता मुझे एक मौन है
राहों के बल हो गयीं पगडंडियां
मेरी मति मार गया कौन है
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