चाव से देखा कि चढ़ आया है दिन
धीरे-धीरे मुट्ठी से गिर आये खिन
धूप मुंह पर फिर मली तो यूं लगा
कम किया चढ़ता हुआ मृत्यु का ऋण
सांसों की कोसी सी गरमी छू गयी
कोंपलों पर हिलती पहछाई रही
चारों दिशाओं का भीगा है माहौल
हवा इधर उधर कुरलाती फिरी
चुपचाप खड़ा है लम्बा खजूर
ख़्वाब में कोई परी या कोई हूर
तोड़ता है कौन पक्के फल वहां
जाग रहे हो या सोये हो हज़ूर
एक धारा दो जगह बहना पड़ा
एक दूजे को भी यूं उगना पड़ा
सासरे में मैेके की चिन्ता रही
यहां सोई तो वहां जगना पड़ा
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