
बेवफ़ा तो आज़माने से हुआ
मेरी ख़ुशियों से वो रिश्ता है तुम्हारा अब तक
ईद हो जाए अगर ईद-मुबारक कह दो
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम
कुछ न था मेरे पास खोने को
तुम मिले हो तो डर गया हूँ मैं
बड़े घरों में रही है बहुत ज़माने तक
ख़ुशी का जी नहीं लगता ग़रीब-ख़ाने में
इश्क़ क्या है ख़ूबसूरत सी कोई अफ़्वाह बस
वो भी मेरे और तुम्हारे दरमियाँ उड़ती हुई
सुना है शोर से हल होंगे सारे मसअले इक दिन
सो हम आवाज़ को आवाज़ से टकराते रहते हैं
जम्हूरियत के बीच फँसी अक़्लियत था दिल
मौक़ा जिसे जिधर से मिला वार कर दिया
तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम
फिर इस मज़ाक़ को जम्हूरियत का नाम दिया
हमें डराने लगे वो हमारी ताक़त से
एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ
एक दिन जिस से झगड़ते थे उसी के हो गए
बस तिरे आने की इक अफ़्वाह का ऐसा असर
कैसे कैसे लोग थे बीमार अच्छे हो गए
दूर जितना भी चला जाए मगर
चाँद तुझ सा तो नहीं हो सकता
ज़रा ये हाथ मेरे हाथ में दो
मैं अपनी दोस्ती से थक चुका हूँ
अपनी आहट पे चौंकता हूँ मैं
किस की दुनिया में आ गया हूँ मैं
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
कि मुशरिकों के लिए भी ख़ुदा ज़रूरी है
कभी लिबास कभी बाल देखने वाले
तुझे पता ही नहीं हम सँवर चुके दिल से
आइने का सामना अच्छा नहीं है बार बार
एक दिन अपनी ही आँखों में खटक सकता हूँ मैं
लिपटा भी एक बार तो किस एहतियात से
ऐसे कि सारा जिस्म मोअत्तर न हो सके
नाम ही ले ले तुम्हारा कोई
दोनों हाथों से लुटाऊँ ख़ुद को
ख़ुदा मुआफ़ करे सारे मुंसिफ़ों के गुनाह
हम ही ने शर्त लगाई थी हार जाने की
हम भी माचिस की तीलियों से थे
जो हुआ सिर्फ़ एक बार हुआ
और मत देखिए अब अद्ल-ए-जहाँगीर के ख़्वाब
और कुछ कीजिए ज़ंजीर हिलाने के सिवा
इस बार इंतिज़ाम तो सर्दी का हो गया
क्या हाल पेड़ कटते ही बस्ती का हो गया
वो साँप जिस ने मुझे आज तक डसा भी नहीं
तमाम ज़हर सुख़न में मिरे उसी का है
बदन ने कितनी बढ़ा ली है सल्तनत अपनी
बसे हैं इश्क़ ओ हवस सब इसी इलाक़े में
ये ख़्वाब कौन दिखाने लगा तरक़्क़ी के
जब आदमी भी अदद में शुमार होने लगे
हमें बुरा नहीं लगता सफ़ेद काग़ज़ भी
ये तितलियाँ तो तुम्हारे लिए बनाते हैं
मुझ को भी पहले-पहल अच्छे लगे थे ये गुलाब
टहनियाँ झुकती हुईं और तितलियाँ उड़ती हुईं
जिज़्या वसूल कीजिए या शहर उजाड़िए
अब तो ख़ुदा भी आप की मर्ज़ी का हो गया
हम को डरा कर, आप को ख़ैरात बाँट कर
इक शख़्स रातों-रात जहाँगीर हो गया
एक करवट पे रात क्या कटती
हम ने ईजाद की नई दुनिया
तौक़-ए-बदन उतार के फेंका ज़मीं से दूर
दुनिया के साथ चलने से इंकार कर दिया
वो मेरे लम्स से महताब बन चुका होता
मगर मिला भी तो जुगनू पकड़ने वालों को
कबूतरों में ये दहशत कहाँ से दर आई
कि मस्जिदों से भी कुछ दूर जा के बैठ गए
उस ने हँस कर हाथ छुड़ाया है अपना
आज जुदा हो जाने में आसानी है
हम बहुत पछताए आवाज़ों से रिश्ता जोड़ कर
शोर इक लम्हे का था और ज़िंदगी भर का सुकूत
किनारे पाँव से तलवार कर दी
हमें ये जंग ऐसे जीतनी थी
पाँव के नीचे से पहले खींच ली सारी ज़मीं
प्यार से फिर नाम मेरा शाह-ए-आलम रख दिया
फूल वो रखता गया और मैं ने रोका तक नहीं
डूब भी सकती है मेरी नाव सोचा तक नहीं
वो तंज़ को भी हुस्न-ए-तलब जान ख़ुश हुए
उल्टा पढ़ा गया, मिरा पैग़ाम और था
उस का मिलना कोई मज़ाक़ है क्या
बस ख़यालों में जी उठा हूँ मैं
रो रो के लोग कहते थे जाती रहेगी आँख
ऐसा नहीं हुआ, मिरी बीनाई बढ़ गई
हम जैसों ने जान गँवाई पागल थे
दुनिया जैसी कल थी बिल्कुल वैसी है
फ़लक का थाल ही हम ने उलट डाला ज़मीं पर
तुम्हारी तरह का कोई सितारा ढूँडने में
मैं अगर तुम को मिला सकता हूँ महर-ओ-माह से
अपने लिक्खे पर सियाही भी छिड़क सकता हूँ मैं
हर मुत्तक़ी को इस से सबक़ लेना चाहिए
जन्नत की चाह ने जिसे शद्दाद कर दिया
तबाह कर तो दूँ ज़ाहिर-परस्त दुनिया को
ये आईने भी मिरे लोग ही बनाते हैं
पूछो कि उस के ज़ेहन में नक़्शा भी है कोई
जिस ने भरे जहान को ज़ेर-ओ-ज़बर किया
ऐसी ही एक शब में किसी से मिला था दिल
बारिश के साथ साथ बरसती है रौशनी
कोई समझाए मिरे मद्दाह को
तालियों से भी बिखर सकता हूँ मैं
पहनते ख़ाक हैं ख़ाक ओढ़ते बिछाते हैं
हमारी राय भी ली जाए ख़ुश-लिबासी पर
क़ाएदे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
आप तो आए नहीं पर फूल महँगे हो गए
मिरा कुछ रास्ते में खो गया है
अचानक चलते चलते रुक गया हूँ
सैर-ए-दुनिया को जाते हो जाओ
है कोई शहर मेरे दिल जैसा
मोहब्बत वाले हैं कितने ज़मीं पर
अकेला चाँद ही बे-नूर है क्या
चख लिया उस ने प्यार थोड़ा सा
और फिर ज़हर कर दिया है मुझे
आप की सादा-दिली से तंग आ जाता हूँ मैं
मेरे दिल में रह चुके हैं इस क़दर हुश्यार लोग
मैं ख़ानक़ाह-ए-बदन से उदास लौट आया
यहाँ भी चाहने वालों में ख़ाक बटती है
जान-ए-जाँ मायूस मत हो हालत-ए-बाज़ार से
शायद अगले साल तक दीवाना-पन मिलने लगे
खिल रहे हैं मुझ में दुनिया के सभी नायाब फूल
इतनी सरकश ख़ाक को किस अब्र ने नम कर दिया
रूह की थाप न रोको कि क़यामत होगी
तुम को मालूम नहीं कौन कहाँ रक़्स में है
डर डर के जागते हुए काटी तमाम रात
गलियों में तेरे नाम की इतनी सदा लगी
नाम से उस के पुकारूँ ख़ुद को
आज हैरान ही कर दूँ ख़ुद को
सब जहाँगीर नियामों से निकल आएँगे
अब तो ज़ंजीर हिलाते हुए डरता हूँ मैं
वो तो कहिए आप की ख़ुशबू ने पहचाना मुझे
इत्र कह के जाने क्या क्या बेचते अत्तार लोग
मैं अपने साए में बैठा था कितनी सदियों से
तुम्हारी धूप ने दीवार तोड़ दी मेरी
दिन को रुख़्सत किया बहाने से
रात थी वो मिरे सितारे की
चाहता हूँ कि पुकारे तुम्हें दिन रात जहाँ
हर तरफ़ मेरी ही आवाज़ सुनाई दे मुझे
आँख खुल जाए तो घर मातम-कदा बन जाएगा
चल रही है साँस जब तक चल रहा हूँ नींद में
जाने किस उम्मीद पे छोड़ आए थे घर-बार लोग
नफ़रतों की शाम याद आए पुराने यार लोग
सुनाई देती है सात आसमाँ में गूँज अपनी
तुझे पुकार के हैरान उड़ते फिरते हैं
किसी के साए किसी की तरफ़ लपकते हुए
नहा के रौशनियों में लगे बहकते हुए
ग़म इस क़दर नहीं थे ढले जितने शेर में
दौलत बनाई ख़ूब मता-ए-क़लील से
मौसम-ए-वज्द में जा कर मैं कहाँ रक़्स करूँ
अपनी दुनिया मिरी वहशत के बराबर कर दे
चाहता हूँ मैं तशद्दुद छोड़ना
ख़त ही लिखते हैं जवाबी लोग सब
ख़याली दोस्तों के अक्स से खेलोगे कब तक
मेरे बच्चे कभी मिल लो भरे घर में किसी से
दिल दे न दे मगर ये तिरा हुस्न-ए-बे-मिसाल
वापस न कर फ़क़ीर को आख़िर बदन तो है
रोक दो ये रौशनी की तेज़ धार
मेरी मिट्टी में गुँधी है रात भी
इश्क़ का मतलब किसे मालूम था
जिन दिनों आए थे हम दिल हार के
फ़क़ीर लोग रहे अपने अपने हाल में मस्त
नहीं तो शहर का नक़्शा बदल चुका होता
कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम
इतनी ताज़ीम हुई शहर में उर्यानी की
रात आँखों ने भी जी भर के बदन-ख़्वानी की
सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
रौशनी ख़ूब हुई रात की चिंगारी से
अब इसे ग़र्क़ाब करने का हुनर भी सीख लूँ
इस शिकारे को अगर फूलों से ढक सकता हूँ मैं
आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
एक मजमे के लिए शेर सुनाते हुए हम
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