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लिपट लिपट के मैं उस गुल के साथ सोता था

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लिपट लिपट के मैं उस गुल के साथ सोता था

रक़ीब सुब्ह को मुँह आँसुओं से धोता था

तमाम रात थी और कुहनीयाँ ओ लातें थीं

न सोने देता था मुझ को न आप सोता था

जो बात हिज्र की आती तो अपने दामन से

वो आँसू पोंछता जाता था और मैं रोता था

मसक्ती चोली तो लोगों से छुप के सीने को

वो तागे बटता था और मैं सूई पिरोता था

ग़रज़ दिखाने को आन ओ अदा के सौ आलम

वो मुझ से पाँव धुलाता था और मैं धोता था

लिटा के सीने पे चंचल को प्यार से हर-दम

मैं गुदगुदाता था हँस हँस वो ज़ोफ़ खोता था

वो मुझ पे फेंकता पानी की कुल्लियाँ भर भर

मैं उस के छींटों से तो पैरहन भिगोता था

नहाने जाते तो फिर आह करती छींटों से

वो ग़ोते देता था और मैं उसे डुबोता था

हुआ न मुझ को ख़ुमार आख़िर उन शराबों का

'नज़ीर' आह इसी रोज़ को मैं रोता था

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Sootradhar