बगूले उठ चले थे और न थी कुछ देर आँधी में
कि हम से यार से आ हो गई मुडभेड़ आँधी में
जता कर ख़ाक का उड़ना दिखा कर गर्द का चक्कर
वहीं हम ले चले उस गुल-बदन को घेर आँधी में
रक़ीबों ने जो देखा ये उड़ा कर ले चला उस को
पुकारे हाए ये कैसा हुआ अंधेर आँधी में
वो दौड़े तो बहुत लेकिन उन्हें आँधी में क्या सूझे
ज़ि-बस हम उस परी को लाए घर में घेर आँधी में
चढ़ा कोठे पे दरवाज़े को मूँद और खोल कर पर्दे
लगा छाती लिए बोसे क्या हत फेर आँधी में
वो कोठे का मकाँ वो काली आँधी वो सनम गुल-रू
अजब रंगों की ठहरी आ के हेरा-फेर आँधी में
उठा कर ताक़ से शीशा लगा छाती से दिलबर को
नशों में ऐश के क्या क्या किया दिल सैर आँधी में
कभी बोसा कभी अंगिया पे हाथ और गाह सीने पर
लगे लुटने मज़े के संगतरे और बैर आँधी में
मज़े ऐश ओ तरब लज़्ज़त लगे यूँ टूट कर गिरने
कि जैसे टूट कर मेवों के होवें ढेर आँधी में
रक़ीबों की मैं अब ख़्वारी ख़राबी क्या लिखूँ बारे
भरी नथनों में उन के ख़ाक दस दस सेर आँधी में
किसी की उड़ गई पगड़ी किसी का फट गया दामन
गई ढाल और किसी की गिर पड़ी शमशीर आँधी में
'नज़ीर' आँधी में कहते हैं कि अक्सर देव होते हैं
मियाँ हम को तो ले जाती हैं परियाँ घेर आँधी में