
व्याकुल विलाप
हे प्रभु मेरी ओर निहार।
एक अविद्या का अटका है, पचरंगी परिवार,
मेल मिलाय एषणा तीनों, करती हैं कुविचार।
काट रहे कामादि कुचाली, धार कुकर्म कुठार,
जीवन-वृक्ष खसाया, सूखा पौरुष-पाल-पसार।
घेर रहे वैरी विषयों के, बन्धन रूप विकार,
लाद दिये सब ने पापों के, सिर पर भारी भार।
जो तू करता है पतितों का, अपनाकर उद्धार,
तो ‘शंकर’ मुझ पापी को भी, भव-सागर से तार।
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