
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
मैं भी कुछ ख़ुश नहीं वफ़ा कर के
तुम ने अच्छा किया निबाह न की
क्या जाने क्या लिखा था उसे इज़्तिराब में
क़ासिद की लाश आई है ख़त के जवाब में
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह
हाथ टूटें मैं ने गर छेड़ी हों ज़ुल्फ़ें आप की
आप के सर की क़सम बाद-ए-सबा थी मैं न था
आप की कौन सी बढ़ी इज़्ज़त
मैं अगर बज़्म में ज़लील हुआ
शब जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन'
रात काटी ख़ुदा ख़ुदा कर के
किसी का हुआ आज कल था किसी का
न है तू किसी का न होगा किसी का
चल दिए सू-ए-हरम कू-ए-बुताँ से 'मोमिन'
जब दिया रंज बुतों ने तो ख़ुदा याद आया
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम
माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्र-ए-यार की
आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ
है कुछ तो बात 'मोमिन' जो छा गई ख़मोशी
किस बुत को दे दिया दिल क्यूँ बुत से बन गए हो
वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
तुझे ऐ ज़िंदगी लाऊँ कहाँ से
किस पे मरते हो आप पूछते हैं
मुझ को फ़िक्र-ए-जवाब ने मारा
उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील
मैं कूचा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया
न करो अब निबाह की बातें
तुम को ऐ मेहरबान देख लिया
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
हँस हँस के वो मुझ से ही मिरे क़त्ल की बातें
इस तरह से करते हैं कि गोया न करेंगे
उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया
डरता हूँ आसमान से बिजली न गिर पड़े
सय्याद की निगाह सू-ए-आशियाँ नहीं
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़
बहर-ए-अयादत आए वो लेकिन क़ज़ा के साथ
दम ही निकल गया मिरा आवाज़-ए-पा के साथ
माशूक़ से भी हम ने निभाई बराबरी
वाँ लुत्फ़ कम हुआ तो यहाँ प्यार कम हुआ
कल तुम जो बज़्म-ए-ग़ैर में आँखें चुरा गए
खोए गए हम ऐसे कि अग़्यार पा गए
चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो
मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो
बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो
हो गया राज़-ए-इश्क़ बे-पर्दा
उस ने पर्दे से जो निकाला मुँह
हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना
न मानूँगा नसीहत पर न सुनता मैं तो क्या करता
कि हर हर बात में नासेह तुम्हारा नाम लेता था
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
बात भी खोई इल्तिजा कर के
इतनी कुदूरत अश्क में हैराँ हूँ क्या कहूँ
दरिया में है सराब कि दरिया सराब में
सोज़-ए-ग़म से अश्क का एक एक क़तरा जल गया
आग पानी में लगी ऐसी कि दरिया जल गया
कर इलाज-ए-जोश-ए-वहशत चारागर
ला दे इक जंगल मुझे बाज़ार से
रह के मस्जिद में क्या ही घबराया
रात काटी ख़ुदा ख़ुदा कर के
है किस का इंतिज़ार कि ख़्वाब-ए-अदम से भी
हर बार चौंक पड़ते हैं आवाज़-ए-पा के साथ
कुछ क़फ़स में इन दिनों लगता है जी
आशियाँ अपना हुआ बर्बाद क्या
हो गए नाम-ए-बुताँ सुनते ही 'मोमिन' बे-क़रार
हम न कहते थे कि हज़रत पारसा कहने को हैं
राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा
क्या एक भी हमारा ख़त यार तक न पहुँचा
तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे
बे-ख़ुद थे ग़श थे महव थे दुनिया का ग़म न था
जीना विसाल में भी तो हिज्राँ से कम न था
साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम
ले शब-ए-वस्ल-ए-ग़ैर भी काटी
तू मुझे आज़माएगा कब तक
मोमिन मैं अपने नालों के सदक़े कि कहते हैं
उस को भी आज नींद न आई तमाम शब
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
रहम उस ने कब किया था कि अब याद आ गया