
पेंच जहाँ भी पड़ती नजर
हर दिशा हर जगह हैं,
खिड़की दरवाजों दीवारों मेज
और जिस कुर्सी पे बैठा हूँ उस पर भी
पूरे घर में पेंच लगे हैं
वे संभाले हैं इसे गिरने से
सारी सड़क सारी दुनिया में पेंच लगे हैं
वे संभाले हुए हैं निकटताओं में दूरियों को,
नाना रूप धारी वे उपस्थित हैं हर पहचान में
मुझ पर भी लगे हैं पेंच भीतर और बाहर
बाँधे हुए मुझे अपने आप से
किसी धीमी आवाज से
और इन शब्दों से,
उनके झूठ का घाव बचाए हुए है मुझे व्याकरण के कारावास में सच से,
बस किसी अभाव को कुरेदता
खोज में हूँ किसी पेचकश की
कि खोल दूँ इनको
कि देखूँ
कि संभव है आकाश का नीला रंग
बिना ऑक्सीजन के भी
दीवार पर पेंच से जड़ी तस्वीर में
Read More! Learn More!