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राजा दुर्गा

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(भीमसेन जोशी के गाये इस राग को सुनने की एक स्मृति)

एक रास्ता उस सभ्यता तक जाता था
जगह-जगह चमकते दिखते थे उसके पत्थर
जंगल में घास काटती स्त्रियों के गीत पानी की तरह
बहकर आ रहे थे
किसी चट्टान के नीचे बैठी चिड़िया
अचानक अपनी आवाज़ से चौंका जाती थी
दूर कोई लड़का बांसुरी पर बजाता था वैसे ही स्वर
एक पेड़ कोने में सिहरता खड़ा था
कमरे में थे मेरे पिता
अपनी युवावस्था में गाते सखि मोरी रूम-झूम
कहते इसे गाने से जल्दी बढ़ती है घास

सरलता से व्यक्त होता रहा एक कठिन जीवन
वहाँ छोटे-छोटे आकार थे
बच्चों के बनाए हुए खेल-खिलौने घर-द्वार
आँखों जैसी खिड़कियाँ
मैंने उनके भीतर जाने की कोशिश की
देर तक उस संगीत में खोजता रहा कुछ
जैसे वह संगीत भी कुछ खोजता था अपने से बाहर
किसी को पुकारता किसी आलिंगन के लिए बढ़ता
बीच-बीच में घुमड़ता उठता था हारमोनियम
तबले के भीतर से आती थी पृथ्वी की आवाज़

वह राग दुर्गा थे यह मुझे बाद में पता चला
जब सब कुछ कठोर था और सरलता नहीं थी
जब आखिरी पेड़ भी ओझल होने को था
और मैं जगह-जगह भटकता था सोचता हुआ वह क्या था
जिसकी याद नहीं आयी
जिसके न होने की पीड़ा नहीं हुई
तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह.

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Sootradhar