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जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया

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जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया

सोज़-ए-जानाँ दिल में सोज़-ए-दीगराँ बनता गया

रफ़्ता रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन

धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ाँ बनता गया

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर

लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

मैं तो जब जानूँ कि भर दे साग़र-ए-हर-ख़ास-ओ-आम

यूँ तो जो आया वही पीर-ए-मुग़ाँ बनता गया

जिस तरफ़ भी चल पड़े हम आबला-पायान-ए-शौक़

ख़ार से गुल और गुल से गुलसिताँ बनता गया

शरह-ए-ग़म तो मुख़्तसर होती गई उस के हुज़ूर

लफ़्ज़ जो मुँह से निकला दास्ताँ बनता गया

दहर में 'मजरूह' कोई जावेदाँ मज़मूँ कहाँ

मैं जिसे छूता गया वो जावेदाँ बनता गया

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Sootradhar