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क़िस्मत अजीब खेल दिखाती चली गई

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क़िस्मत अजीब खेल दिखाती चली गई

जो हँस रहे थे उन को रुलाती चली गई

दिल गोया हादसात-ए-मुसलसल का शहर हो

धड़कन भी चीख़ बन के डराती चली गई

काग़ज़ की तरह हो गई बोसीदा ज़िंदगी

तहरीर हसरतों की मिटाती चली गई

मैं चाहती नहीं थी मगर फिर भी जाने क्यूँ

आई जो तेरी याद तो आती चली गई

आँखों की पुतलियों से तिरा अक्स भी गया

या'नी चराग़ में थी जो बाती चली गई

ढूँडा उन्हें जो रात की तन्हाई में 'हया'

इक कहकशाँ सी ज़ेहन पे छाती चली गई

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Sootradhar