मैं ने वीराने को गुलज़ार बना रक्खा है
क्या बुरा है जो हक़ीक़त को छुपा रक्खा है
दौर-ए-हाज़िर में कोई काश ज़मीं से पूछे
आज इंसान कहाँ तू ने छुपा रक्खा है
वो तो ख़ुद-ग़र्ज़ी है लालच है हवस है जिन का
नाम इस दौर के इंसाँ ने वफ़ा रक्खा है
वो मिरे सहन में बरसेगा कभी तो खुल कर
मैं ने ख़्वाहिश का शजर कब से लगा रक्खा है
मैं तो मुश्ताक़ हूँ आँधी में भी उड़ने के लिए
मैं ने ये शौक़ अजब दिल को लगा रक्खा है
मैं कि औरत हूँ मिरी शर्म है मेरा ज़ेवर
बस तख़ल्लुस इसी बाइ'स तो 'हया' रक्खा है
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