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कुमार विश्वास की शायरी | kavishala - कविशाला

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कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है

मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है




उसी की तरह मुझे सारा ज़माना चाहे

वो मिरा होने से ज़्यादा मुझे पाना चाहे




मिरा ख़याल तिरी चुप्पियों को आता है

तिरा ख़याल मिरी हिचकियों को आता है




दिल के तमाम ज़ख़्म तिरी हाँ से भर गए

जितने कठिन थे रास्ते वो सब गुज़र गए




जब से मिला है साथ मुझे आप का हुज़ूर

सब ख़्वाब ज़िंदगी के हमारे सँवर गए




फिर मिरी याद आ रही होगी

फिर वो दीपक बुझा रही होगी




आदमी होना ख़ुदा होने से बेहतर काम है

ख़ुद ही ख़ुद के ख़्वाब की ताबीर बन कर देख ले




जिस्म चादर सा बिछ गया होगा

रूह सिलवट हटा रही होगी




अपने ही आप से इस तरह हुए हैं रुख़्सत

साँस को छोड़ दिया जिस सम्त भी जाना चाहे




चारों तरफ़ बिखर गईं साँसों की ख़ुशबुएँ

राह-ए-वफ़ा में आप जहाँ भी जिधर गए




Dr Kumar Vishwas Kavishala

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Sootradhar