मन की धूप's image
0231

मन की धूप

ShareBookmarks

मन की धूप
कब की भटक गई अनजान गलियों में
मन का हाहाकार स्तब्ध
भीतर-भीतर कंठ दाब दिया

बाहर यह अशोक फूला है
बाहर दूर्वा का मुकुट पहन राह मुसकराती है
पर मैं खड़ा रहा
निहारते तुम्हारी बाट
जैसे कवि था खड़ा
उज्जयिनी के जन-मार्ग पर
किसी मालविका की प्रतीक्षा में
जैसे विधि था प्रतीक्षारत
नील नाभि पर
किसी के नयन पलक खुलने की चाह में
मैं खड़ा रहा वैसे ही
भीतर अपने को तराशता रहा
रचता रहा युगनद्ध मूर्ति
और बाहर शून्यपथ, शून्यनेत्र
तुमको पुकारते रहे।

[ कलकत्ता : नेशनल लाइब्रेरी (अलीपुर), 1959 ]

Read More! Learn More!

Sootradhar