
चन्द्रवर्णी रात
गढ़ रही है काष्ठ चन्दन
मॅंह-मॅंह गन्ध फैली है
चन्द्रवर्णी रात
छीलती है काष्ठ
खोलती निर्मोक वल्कल
मलयगंधी मूर्ति का जो
काष्ठ के आदिम हृदय में
छिपी बैठी प्रतीक्षारत
चन्द्रवर्णी रात
गढ़ रही एक चन्दन काष्ठ
उभरती जा रही है
एक महाश्वेता रूपसी
ज्यों रूपसर से सद्य स्नाता
उर्वशी निकली
स्तोत्रनूपुर बज उठे सर्वत्र।
इस तरह ताकता मैं रह गया अनिमेष
क्षण-प्रतिक्षण।
बाँचता मैं रह गया इस रात को
क्षण-प्रतिक्षण।
मोर की पहली किरन, पंथ की बाँधवी
जो मुझे हलकी चपत दे कह गई सब राज
सारा मर्म उस शिल्पी रात का
ये उपकरण था मैं स्वयं
मलयगंधी काष्ठ था मैं स्वयं।
यद्यपि ताकता मैं रह गया अनिमेष
बाँचता मैं रह गया अनवरत, अविराम
उस मधुमयी रात को।
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