
यह काया है शुष्क काष्ठ, पत्रहीन छाया विहीन
इस पर शुक-पिक रैन-बसेरा न लें तो क्या?
पथिक ठीक ही है क्यों पछताने इस तक आयें
हर्ज नहीं, पथ भूले नहीं इधर मधु की माया।
जीवन पस्त रहा टूटता विरस अनुदिन
तब भी तो यह काया रही गान- मुखरा!
षट्ऋतुओं के रथ आये, फिर लौटे बार-बार
इस शुष्क काठ पर भी गन्धर्वों का गायन उतरा।
बन्धु, सदैव सरस का गान शुष्क ही है लिखता
अनगढ़ सीपी के अस्थिशेष में उजला मोती पलता,
यह काया है काठ तार जिस पर एक चढ़ा
जिस पर स्वर का वर्त्तिनाग अहरह जलता।
श्वेत रह गये छूँछे पानी गंदला बादल लाया,
पंकज खिलता वहीं जहाँ हो सुलभ पंक की माया।
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