
अरे तू काहे को रोता है
यहाँ कुछ ख़त्म नहीं होता
छूट रही नहीं कोई संपदा
यों ही बेमतलब क्यों
कीचड़ बिलोता है.
भीतर से बाहर तक
ख़ाली ही ख़ालीपन जगमग था
आग,हवा,पानी को तरस आ गया
शक्ल पा गया तू
कोशिश किये बिना
जोड़ किये ठीकरे
छत डाल ली
जहाँ देह तक किस्री और की मेहेर हो
डर मरने का बेमानी है
असल में दोष नहीं दो दीदों का
आदम की नस्ल
तीसरी आँख से कानी है.
रोज़ जाल बुनता है
सर धुनता तू / देखकर / चौपट
यह धंधा हड्डी की खाल का
चोला तो लेकिन
बचुआ हमेशा से
बंधुआ मज़दूर है
काल का.
Read More! Learn More!