कटती हैं आँखों ही में हिज्र की सारी रातें
हाए क्या प्यार से सोते थे लिपट कर ऐ जान
याद हर दम मुझे आती हैं वो प्यारी रातें
दोनों ज़ुल्फ़ों में हैं ख़ुर्शेद से ताबाँ आरिज़
रोज़-ए-रौशन के बराबर हैं तुम्हारी रातें
जो घड़ी है नज़र आती है मुझे एक पहाड़
हैं ग़ज़ब फ़ुर्क़त-ए-महबूब की भारी रातें
हिज्र में सुब्ह से ता-शाम बजाए शबनम
मेरी आँखों से लहू रखती हैं जारी रातें
हैं शब-ए-गोर के मानिंद हमारी रातें
शब-ए-तारीक जुदाई में ये चिल्लाता हूँ
दिक़ बहुत करती हैं या-हज़रत-ए-बारी रातें
तेरी ज़ुल्फ़ों के लिए शाना-ब-कफ़ है हर दिन
और करती हैं तिरी आईना-दारी रातें
फ़स्ल-ए-गुल में वो गुल-ए-तर नहीं गुल कर दे चराग़
कि सियह चाहिएँ ऐ बाद-ए-बहारी रातें
मुर्ग़-ए-ज़र्रीन-ए-फ़लक पर है यक़ीन-ए-ख़ुफ़्फ़ाश
किस क़दर मेरे दिनों में हुईं सारी रातें
दिन के बदले भी यही आती हैं ग़म-ख़्वारी को
मुझ से रखती हैं बहुत हिज्र में यारी रातें
दिन तो 'नासिख़' के ब-हर-हाल गुज़र जाते हैं
पर जुदाई में बहुत लाती हैं ख़्वारी बातें