इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
जब आग हो नम-ख़ुर्दा तो उठता है धुआँ और
वो क़हत-ए-जुनूँ है कि कोई चाक गिरेबाँ
आता है नज़र भी तो गुज़रता है गुमाँ और
ये संग-ज़नी मेरे लिए बारिश-ए-गुल है
थक जाओ तो कुछ संग ब-दस्त-ए-दिगराँ और
सूरज को ये ग़म है कि समंदर भी है पायाब
या रब मिरे क़ुल्ज़ुम में कोई सैल-ए-रवाँ और
‘शाइर’ ये ज़मीं हज़रत-ए-ग़ालिब की ज़मीं है
हर शेर तलब करता है ख़ून-ए-रग-ए-जाँ और
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