टपकती पेड़ से कांव-कांव छापती है
आकृति कौवे की
दिमाग के खाली कागज पर
मुझे किस तरह जानता होगा कौआ
नहीं जानता मैं
उस बिचारे का दोष नहीं, मेरी भाषा का है
जो उसे 'कौआ' जान कर सन्तुष्ट है
वहीं से शुरू होता है मेरा असंतोष
जहां लगता है - मुझे क्या पता सामान्य कौए की आकृति में
वह क्या है कठिनतम
सरलतम शब्द में भाषा कह देती है जिसे 'कौआ' !
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