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मुझे पुकारती हुई पुकार

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मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं...

प्रलंबिता अंगार रेख-सा खिंचा

अपार चर्म

वक्ष प्राण का

पुकार खो गई कहीं बिखेर अस्थि के समूह

जीवनानुभूति की गंभीर भूमि में।

अपुष्प-पत्र, वक्र-श्याम झाड़-झंखड़ों-घिरे असंख्य ढूह

भग्न निश्चयों-रुँधे विचार-स्वप्न-भाव के

मुझे दिखे

अपूर्त सत्य की क्षुधित

अपूर्ण यत्न की तृषित

अपूर्त जीवनानुभूति-प्राणमूर्ति की समस्त भग्नता दिखी

(कराह भर उठा प्रसार प्राण का अजब)

समस्त भग्नता दिखी

कि ज्यों विरक्त प्रांत में

उदास-से किसी नगर

सटर-पटर

मलीन, त्यक्त, ज़ंग-लगे कठोर ढेर—

भग्न वस्तु के समूह

चिलचिल रहे प्रचंड धूप में उजाड़...

दिख गए कठोर स्याह

(घोर धूप में) पहाड़

कठिन-सत्त्व भावना नपुंसका असंज्ञ के

मुझे दिखी विराट् शून्यता अशांत काँपती

कि इस उजाड़ प्रांत के प्रसार में रही चमक।

रहा चमक प्रसार...

फाड़ श्याम-मृत्तिका-स्तरावरण उठे सकोण

प्रस्तरी प्रतप्त अंग यत्र-तत्र-सर्वतः

कि ज्यों ढँकी वसुंधरा-शरीर की समस्त अस्थियाँ खुलीं

रहीं चमक कि चिलचिला रही वहाँ

अचेत सूर्य की सफ़ेद औ' उजाड़ धूप में।

समीर-हीन ख़ैबरी

अशांत घाटियों गई असंग राह

शुष्क पार्वतीय भूमि के उतार औ' उठान की निरर्थ

उच्चता निहारती चली वितृष्ण दृष्टि से

(कि व्यर्थ उच्चता बधिर असंज्ञ यह)

उजाड़ विश्व की कि प्राण की

इसी उदास भूमि में अचक जगा

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं।

दरार पड़ गई तुरत गभीर-दीर्घ

प्राण की गहन धरा प्राप्त के

अनीर श्याम मृत्तिका शरीर ये

कि भाव स्वप्न भार में

पुकार के अधीर व्यग्र स्पर्श से बिलख उठे

तिमिर-विवर में पड़ी अशांत नागिनी—

छिपी हुई तृषा

अपूर्त स्वप्न-लालसा

तुरत दिखी

कि भूल-चूक ध्वंसिनी अनावृता हुई।

पुकार ने समस्त खोल दी छिपी प्रवंचना

कहा कि शुष्क है अथाह यह कुआँ

कि अंधकार-अंतराल में लगे

महीन श्याम जाल

घृण्य कीट जो कि जोड़ते दिवाल को दिवाल से

व अंतराल का तला

अमानवी कठोर ईंट-पत्थरों से भरा हुआ

न नीर है, न पीर है, मलीन है

सदा विशून्य शुष्क ही कुआँ रहा।

विराट् झूठ के अनंत छंद-सी

भयावनी अशांत पीत धुंध-सी

सदा अगेय

गोपनीय द्वंद्व-सी असंग जो अपूर्त-स्वप्न-लालसा

प्रवेग में उड़े सुतीक्ष्ण बाण पर

अलक्ष्य भार-सी वृथा

जगा रही विरूप चित्र हार का

सधे हुए निजत्व की अभद्र रौद्र हार-सी।

मैं उदास हाथ में

हार की प्रतप्त रेत मल रहा

निहारता हुआ प्रचंड उष्ण गोल दूर के क्षितिज।

शून्य कक्ष की उदास

श्वासहीन, पीत-वायु शांति में

दिवाल पर

सचेष्ट छिपकली

अजान शब्द-शब्द ज्यों करे

कि यों अपार भाव-स्वप्न-भार ये

प्रशांति गाढ़ में

प्रशांति गाढ़ से

प्रगाढ़ हो

समस्त प्राण की कथा बखानते

अधीर यंत्र-वेग से अजीब एक-रूप-तान

शब्द, शब्द, शब्द में।

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं...

आज भी नवीन प्रेरणा यहाँ न मर सकी,

न जी सकी, परंतु वह न डर सकी।

घनांधकार के कठोर वक्ष

दंश-चिह्न-से

गभीर लाल बिंब प्राण-ज्योति के

गभीर लाल इंदु-से

सगर्व भीम शांति में उठे अयास मुस्कुरा

घनांधकार की भिदी परंपरा।

सफ़ेद राख के अचेत शीत

सर्व ओर रेंगते प्रसार में

दबी हुई अनंत ज्योति जग उठी

मलीन मृत्यु-गीत के उदास छंद बावरे

घनांधकार के भुजंग-बंध दीर्घ साँवरे

विनष्ट हो गए

प्रबुद्ध ज्वाल में हताश हो।

विशाल भव्य वक्ष से

बही अनंत स्नेह की महान् कृतिमयी व्यथा

बही अशांत प्राण से महान् मानवी कथा।

किसी उजाड़ प्रांत के

विशाल रिक्त-गर्भ गुंबजों घिरे

विहंग जो

अधीर पंख फड़फड़ा दिवाल पर

सहाय-हीन, बद्ध-देह, बद्ध-प्राण

हारकर न हारते

अरे नवीन मार्ग पा खुला हुआ

तुरंत उड़ गए सुनील व्योम में अधीर हो।

मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई वहीं

सँवारती हुई मुझे

उठी सहास प्रेरणा।

प्रभात भैरवी जगी अभी-अभी।

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Sootradhar