कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम's image
1K

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

ShareBookmarks

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए

वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी

इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात

जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम

क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला

हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम

बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ ओ दर्द

तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश ओ हर दौर में

इस ज़मीन ओ आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती

उस को भी अपनी तबीअ'त का समझ बैठे थे हम

साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशिक़ी ने कर दिया

ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम

कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को

दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम

बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी आ ही गया

उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम

अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे

बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम

एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को

कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला

ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'

मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम

Read More! Learn More!

Sootradhar