जहाँ तक इश्क़ की तौफ़ीक़ है रंगीं बनाते हैं
वो सुनते हैं हम उन को सर-गुज़िश्त-ए-दिल सुनाते हैं
उधर हक़-उल-यक़ीं है अब वो आते अब वो आते हैं
उधर अंजुम मिरी इस ज़ेहनियत पर मुस्कुराते हैं
शब-ए-ग़म और महजूरी ये आलम और मजबूरी
टपक पड़ते हैं आँसू जब वो हम को याद आते हैं
वहीं से दर्स-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ का आग़ाज़ होता है
जहाँ से वाक़िआ'त-ए-ज़िंदगी हम भूल जाते हैं
हमें कुछ इश्क़ के मफ़्हूम पर है तब्सिरा करना
इक आह-ए-सर्द को उनवान-ए-शरह-ए-ग़म बनाते हैं
बहा कर अश्क-ए-ख़ूँ खींची थीं जो आईना-ए-दिल में
हम उन मौहूम तस्वीरों को अब रंगीं बनाते हैं
शबाब-ए-ज़िंदगी जल्वों का इक मा'सूम नज़्ज़ारा
हमें ऐ दिल वो अफ़्साने अभी तक याद आते हैं
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