एक शाम भीष्म से हमने फोन पर वक्त तय किया और उनसे मिलने उस रेस्त्रां में जा पहुंचे, इधर-उधर निगाह मारी. मुलाकात क्योंकि पहली थी इसलिए किसी पत्रिका में छपी फोटो का ध्यान कर हम भीष्म साहनी को पहचानने की कोशिश करने लगे. दरवाजे पर टकटकी लगाए सोचने लगे कि अभी कोई लंबा-ऊंचा साहनी अंदर दाखिल होगा, तो हमें गर्मजोशी से हाथ मिलाना होगा और पाठकों के अंदाज में कहना होगा— भीष्म साहिब, आपसे मिलने की बड़ी तमन्ना थी. आज पूरी हुई. आने के लिए शुक्रिया.
इंतजार करते-करते थक गए तो वेटर को याद दिलाई— जरा बाहर देखिए… बरामदे में कोई साहब इंतजार तो नहीं कर रहे. भीष्म साहनी नाम है.
साथ वाली मेज से आवाज आई— ‘तो हशमत साहब आप ही हैं! इधर आइए, मुझे भीष्म साहनी कहते हैं.’ भीष्म ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. हमें लैम्प के नारंगी शेड में एक ऐसा चेहरा दिखा जो भीष्म साहनी न हो, भीष्म साहनी का बेटा हो.
गोरा-चिट्टा जवान चेहरा. आंखों में तल्खी ‘न’ के बराबर. हमने यहीं से कुछ-कुछ उनकी उम्र का हिसाब लगाया. यह कि वह खुद अपने बेटे नहीं, अपने बेटे के बाप हैं.
भीष्म के आगे कॉफी का प्याला और हाथ में सिगरेट, नोक-पलक तराशी हुई. चंद ही मिनटों में हम यह भूल गए कि भीष्म वह चेहरा है जो हम-आप में से किसी का बेटा हो सकता है. किसी का भाई, किसी का भतीजा और हर किसी का दोस्त. कहने का मतलब यह है कि आप किसी भी कबीले में भीष्म जैसे बरखुरदार को मजबूती से बंधा देख सकते हैं. भीष्म जो है वह सामने है जितनी आंख और सब्र आपके पास है उतना ही सहजपन आप भीष्म के इर्द-गिर्द देख सकते हैं, पा सकते हैं. भीष्म के पास कोई हाशिया नहीं है. कोई परदा नहीं. वह सादगी-पसंद सादामिजाज इंसान है.
जीने के स्तर पर भीष्म के पास एक सुथरा, सुरक्षित, मजबूत चौखटा है जिसने भीष्म के समूचे लेखन और काफी हद तक जीवन-दृष्टि को भी प्रभावित किया है. उनकी अपनी राजनीतिक आस्थाएं हैं, ‘इंटेलेक्चुअल कमिटमेंट’ है. मोटे तौर पर भीष्म को अपने कितने ही साथियों से कहीं ज्यादा सुविधा और समग्रता जिंदगी में मिली है. छोटी-मोटी सुविधाएं— अच्छा घर, पढ़ी-लिखी बीवी, किताबों से भरी शेल्फें और रवानगी को एकसार करती एक बंधी-बंधाई जिंदगी. जीवन के इस सुरक्षित पैटर्न ने जहां भीष्म को पनपने में मदद दी है, वहां लेखन के लिए जमने की जो जमीन सिर्फ चुनौतियों से बनती है— भीष्म के आगे से दूर कर दी है, हटा दी है. यही वजह है कि लेखन के स्तर पर भीष्म को यह लड़ाई कुछ दूसरे ढंग से लड़नी पड़ती है.
भीष्म मध्यवर्ग की खरोंचें, जख्म, उसके दर्द और उसके ऊपरी खोल को छू-छूकर, अपने को उस भीड़ से अलग खड़ा कर लेते हैं और नए सिरे से अपनी पुरानी चिर-परिचित जमीन में उन्हें अंकित करने का निर्णय कर डालते हैं.
हशमत इतना जरूर कहना चाहेंगे कि जिस मध्यवर्गीय खोखलेपन को भीष्म का लेखन उघाड़ता है, उसे देखने की आंख भी उसे उसी वर्ग से मिली है. ‘चीफ की दावत’ से लेकर ‘भगवान के आदमी’ तक की कहानियों में परिवेश के यथार्थ को भीष्म ने अपनी साहित्यिक मान्यताओं से परे नहीं जाने दिया. यही वह बिंदु भी है जो भीष्म की रचनाओं को उसके मानसिक घनत्व के बराबर जोड़े रखता है.
इंटेलेक्चुअल तल पर दर्जा-ब-दर्जा उड़ानों या गहराइयों में खो जाने के साथ जिंदगी के यथार्थ से हट जाना, प्रतिभा के बल पर अपने को विभाजित कर लेना. अपने पर खुद लीक लगाकर समाज से कट जाना, किसी भी लेखक के लिए विभाजन से बड़ी त्रासदी है.
भीष्म ने इस विभाजन से अपने को बचाया है. उसकी नजर कटी नहीं. उसका सोचना अंधेरे और उजाले में डगमगाया नहीं.
भीष्म की तारीफ में यह कहना जरूरी है कि उसके दोस्तों का बड़ा गुच्छा उसके मिजाज का सबूत है. अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वालों की अमलदारी वाली ऊंची अदा भीष्म में कतई नहीं.
भीष्म का पेशा है अंग्रेजी पढ़ाना और अपनी मादरी जबान हिंदी में साहित्य-सृजन करना. अंग्रेजी साहित्य के शिक्षकों और पाठकों को हिंदी की हवा से हो जाने वाले जुकाम से भीष्म ने अपने को आजाद रखा है.
ओफ्फो, किस खतरनाक नुकते को छू लिया हशमत ने! अभी भी अंग्रेजी पर फिदा दोस्तों की बहुत बड़ी कतार है जो मान कर चली है कि हिंदी पिछड़ेपन की जबान है. इसमें कुछ लिखा भी जा सकता है, इसमें भी उन्हें शक है।
अकादेमी पुरस्कार प्राप्त ‘तमस’ का पहला अध्याय पढ़ कर भाषा और शिल्प के स्तर पर हिंदी न बिचारी लगती है, न पिछड़ी. हिन्दी समर्थ है, सुथरी है और जो चाहे व्यक्त कर सकती है.